चित्र -- मराठी कथा से अनुवाद भाग 2/4

चित्र -- मराठी कथा से अनुवाद भाग 2/4

मूल मराठी कथा -- परशुराम देशपांडे
हिन्दी अनुवाद -- लीना मेहेंदले

॥॥॥॥॥॥

ओरछा.... हाँ, यह ओरछा ही है। मध्य प्रदेश के पुराने इतिहास को साँसो मे समाकर भी पतझड के रंगहीन पत्तों की तरह बुझा बुझा सा ओरछा...

कृष्णन नायर -----मेरे आर्थिक मामले संभालने वाला मेरा सीए और अमिता ----उसकी नई प्राइवेट सेक्रेटरी । शुरू में मानने को तैयार ही नही कि कोई चित्रकार केवल चित्र बेचकर इतने पैसे कमा लेता है उसकी मोटी मोटी आँखों में बच्चोंसा कौतुहल देखकर मैं खुद उसे अपने चित्र दिखाने ले आया था।

वहीं से शुरू हुआ हमारी प्रेमकहानी का प्रवास। लेकिन जीवन का यशोदायी कालखंड शुरू होने से पहले जो बीती थी उसे मैने मनके दूरदराज के कोने में बंद कर दिया था। उसे मैंने नही खोला। अमिता ने भी अपने पूर्व स्मृतियों को कही फेंक दिया था। जब मुझे ही उसके विषय में कुछ नही मालूम तो औरोको कैसे हो। फिर भी एक दूसरे का चैतन्य इतना गहरा था कि हमें बीती बातों को जानने की कोई ललक नही थी।

स्त्री सौंदर्य के परिणाम मेरे जैसे चित्रकार की पलकोंने भी रटे होते हैं। अमिता उस दृष्टिसे कोई रूपवती नही थी। वह नाटी थी। और शरीर की धनता भी कम ही थी। लेकिन चेहरा बडा ही नपा तुला था। उसकी आँखे, उसके होंठ, उसकी जरा सी चपटी नाक और घने केश। उसे पहली बार देखा तो उसका चेहरा ऐसा दिखा था मानों शबनम में नहाया ताजा खिला फूल हो। मुझे वह चिरपरिचित सा लगा। उसकी आँखों में रात्रो के आकाश की नीलिमा थी। चंद्रमा की कोर की तरह उसके पतले होंठ और करीब ही रोहिणी की तरह सोंदर्य बिखेरता हुआ तिल। वह हँसी तो मानो भोर की लालिमा फूट पडी थी।

उसे देखकर मैं चकरा गया था। आश्चर्य, कौतुहल, एक अनामिक चिंता के साथ साथ एक अजीबसा नशा भी छा गया था मुझपर। उसने मेरे सदा संकोची स्वभाव पर काबू कर लिया। मेरे मन में प्रेम का प्रचंड यज्ञकुंड दहदहाने लगा और सारी भाव भावनाएँ उसमें आहुति की तरह स्वाहा होने लगीं। अचानक मैं हर्ष खेद से परे हो गया और बाकी रहा केवल प्रेम।

मेरे मन पर पैंतीस साल की जमी परतें अमिता की हँसी में पिघल रही थीं। उसने मुझे भी अपने जैसा ओस नहाया नया नवेला बना दिया था। और मेरी संवेदनाओं पर भी कब्जा कर लिया था। प्रेम की अद्भुत शक्ति से मेरा पहिला परिचय था। प्रेम का नशा कैसे चढता है और तनी गरदन वाले भी कैसे प्रेम के सामने घुटने टेक देते हैं। प्रेमगीत कैसे खुद ब खुद होठों पें आ जाते हैं। ये सारे अनुभव मैं पहली बार कर रहा था। अब तक मैं कितनी बार बहस कर चुका था कि प्रेम एक घिसा पिटा शब्द है। लेकिन आज वही एक शक्तीमंत्र लग रहा था जो मेरे मन के अंदर भरे पडे हलाहल से अमृतकुंभ को उठाकर बाहर ला रहा था।

मैंने नायर से यह सब बताया तो वह हॅसता ही रहा। आशुतोष, मैं तो तुझे एक आदर्श चित्रकार समझता रहा, सामने बैठी सर्वांग सुंदर न्यूड मॉडलका चित्र भी तुम जिस तटस्थ भावसे बनाते हो उसे देखकर तो यही लगता था कि तुम्हारे सपनों की दुनियाँ की किसी अप्सरा की संगत छोडकर इस क्षुद्र धरा की मानवी स्त्री का स्वीकार ही तुम नही करोगे। फिर हमारी आमिता में तुम इतना कैसे उलझ गये?
'पता नही', उसके टेबुल पर पडा शीशे का पेपरवेट मैं घुमाता रहा। उसके अंदर रची नक्काशी को दिखाकर कहा -- 'लगता है इसी नक्काशी की तरह अमिता की छाप पहलेसे ही मेरे दिल की गहराई में कहीं थी। जब दो परिचित समय के अंतराल से एक दूसरे से मिलते हैं तो जुदाई का काल सिमट कर लुप्त हो जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ है हम दोनों के बीच। मानों हम सदियोंसे एक दूसरे के जानते हैं और बीच मे वह अनचिन्हा अंतराल कभी था ही नही।' नायर ने बडी नाटकीयता से हाथ जोड दिये -- 'यहॉ तक तो ठीक है, लेकिन अब तुम्हारी भाषा समझने के लिये भी मुझे भोलानाथ के चरण पकडने पडें ऐसा तो मत करो।'

नायर सही कह रहा था। उसे चित्रोंकी समझ जरा भी नही है। हमारा एक दूसरा दोस्त है भोलानाथ सहाय, कानपुर से है। वही समझाता है नायर को। खुद हिंदी का प्राध्यापक है, उसके चाचा आकाशवाणी में बडे अफसर हैं। उन्हीं की पहचान पर भोलानाथ को प्राध्यापकी भी मिली और आकाशवाणी पर अपनी धीरगंभीर गंगौघ जैसी वाणीमें हिंदी समाचार पढने का काम भी। दो वर्ष पहले निराला की कविता पर आधारित मेरे चित्रों की प्रदर्शनी जहाँगीर आर्ट गैलरी में लगी थी। वहाँ हमारी पहली मुलाकात हुई थी। भोलानाथ भी वाशी में ही रहता हैं यह जानकर हम दोनों खिलखिला उठे थे। भोलानाथ ने अपनी उसी लोकप्रिय आवाज में कहा -- 'दुनियॉ छोटी है यह तो पता था, लेकिन इतनी छोटी होगी यह न मालूम था।'

हम दोनों जल्दी ही अच्छे दोस्त बन गये थे। सांसारिक बंधनसे हम दोनों ही दूर रहना चाहते थे। इसलिये अकेले ही रह रहे थे। भोलानाथ वन बेडरूम फ्लॅट में रहता था और मैं इस विशाल टेरेस फ्लॅट में। बस यही अंतर था। लेकिन एक बडी समानता थी -- हम दोनो के फ्लॅट में बेतरतीबी से पडा हुआ सामान। मेरे कमरे में यहाँ वहाँ कॅनवास, लकडी के फ्रेम, रंगोंकी टयूब्स, ब्रश, मुडे तुडे फर्श पर फेंके हुए कागज। भोलानाथ के कमरे में हर तरफ किताबें बिखरी हुईं। मेरे कमरे में करीने से एक ही वस्तु रखी थी। पैरिस से शौक से लाई हुई फोर ट्रॅक म्युझिक सिस्टिम। उन कॅसेट्स की रिकार्डिंग में क्या क्या नही है। बंगाली बालाओं के लोकगीत, विविध भारती के भूलेबिसरे गीत, कई पंडितों के बंगलमें कई खान साहबों के गाये शास्त्रीय राग, रवीन्द्र संगीत, भोलानाथ के स्वर में कई कविताएँ, शेक्सपियर के नाटकों के अंश......।

अमिता मेरे जीवन में आई तो उसने शुरू में कोशिश की मेरा घर सँवारने की। लेकिन उसे जल्दी ही समझ आ गई कि फ्लॅट तरतीबी से रहे इससे जरूरी है कि जब भी मै हाथ बढाऊँ तो हर चीज मुझे अपने आस पास ही मिल जाय। फिर उसने अपनी जिद किचन तक रखने का फैसला किया। लेकिन वहाँ भी भोलानाथ की दखल थी। पहले पहले अमिता चिढी, लेकिन जब उसने देखा कि मुझे सामिष पदार्थ पसंद हैं और भोलानाथ उन्हें बनाने में माहिर है तो उसका विरोध कर्पूर की तरह उड गया।

मेरे घर में रोज आने वाले अमिता और भोलानाथ, किचन से निकलने वाली खुशबुएँ, संगीत के स्वर और इन सब के बीच गाहे बगाहे हाजिरी लगाने वाले नायर, प्रभुदास, देवराज आदि मित्र परिवार देखकर पहले तो इस ब्लॉक के बाकी घरों के लोग भौंहें ऊँची करते थे। लेकिन अमिता ने अपनी स्त्री सुलभ चातुर्य से हमारी पडोसन की पटा लिया था। मैंने जब सुना कि अमिता और नायर भाई बहन हैं और इस बंगाली बाबूसे अमिता की सगाई हो चुकी है तो मैं चकरा गया था। मैंने अमिता से पूछा उसने पडोसियों को यह झूठ क्यों कहा तो उसका जबाब सीधा था। 'अपना समाज हर संबंध के लिये, हर रिश्ते के लिये एक नाम चाहता है। मुझे भी यहाँ रोज चोरों की तरह मुँह छुपा कर आना असहनीय हो
जाता है। अगर मैं यह झूठ नही कहूँ तो ये औरतें और भी भयंकर अफवाह फैलाऐंगी। तुम तो फक्कड ठहरे, तुम्हें कोई फर्क नही पडता। लेकिन मेरे जैसी अकेली युवती के लिये उनकी निगाहें सहना अग्निपरीक्षा से कम नही होता।'

'ये सब ठीक है। लेकिन तुमने क्यों सोच लिया कि हम शादी करने वाले हैं।' 'वह तो अटल है। आज या कल कभी न कभी तुम मुझसे शादी करोगे यह मुझे मालूम है।' 'क्या खाक मालूम है तुम्हें। और मुझे तुम्हारे नाम अमिता कदम के अलावा क्या मालूम तुम्हारे बारे में।' 'मुझे भी तुम्हारा नाम आशुतोष मुखर्जी है इसके अलावा कुछ नही मालूम। लेकिन यदि हमारे नाम कुछ दूसरे होते तो क्या फर्क पड जाता? हमारी मुलाकात इसी तरह होगी यह तो तय था।' 'लेकिन मान लो मैं दुसरी लडकी से शादी कर लूँ तो?' 'लेकिन वेकिन क्या। तुम्हें पक्का पता है कि तुम ऐसा कुछ नही करनेवाले।' और एक झटके से अमिता निकल गई। उसके अभिमान क्यों ठेस पहुँची थी। वह चली गई और मुझे उदासी ने घेर लिया। वह सच ही तो कह रही थी। मैं इतने वर्ष रुका था तो सिर्फ उसी के इन्तजार में। उस एक पल में झक्‌ उजाले की तरह सारी बातें मुझे साफ साफ दिख गईं।
-------------------------------xxx------------------------------

Comments

Popular posts from this blog

मी केलेले अनुवाद -- My Translations

एक शहर मेले त्याची गोष्ट

उद्धव गीता भाग १ -- भांडारकर व्याख्यान दि. १२ जून २०१९