चित्र -- मराठी कथा से अनुवाद भाग 1/4

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मराठी कथा से अनुवाद भाग 1/4
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मूल मराठी कथा -- परशुराम देशपांडे
हिन्दी अनुवाद -- लीना मेहेंदले

मैं नवी मुंबई में आकर रहने लगा तबसे पांच वर्ष बीते। यहॉ शहरीकरण की अच्छी प्लनिंग है। चौडी सुंदर सडकें, करीने से बनी बहुमंजिली इमारतें और जनसंख्या वृध्दि। फिर भी दिनके ग्यारह बजते बजते सडके शांत हो जाती हैं। मानों सारी भीड को ऑफिसों ने सोख लिया हो।

अलस्सुबह जब किसी बडी आवाज से जागकर घबराए पंछी पंख फडफडाते हुए उड जाते हैं और शोर करने लगते हैं तो उन्हें डरा हुआ जानकर पेडोंकी नटखट कोंपलें आपस में खुसफुस कर हँसती रहती हैं। तभी से रास्ता तैयार हो जाता है अलग अलग आवाजोंके धमाके झेलने के लिये। लेकिन इस मध्याह्न की बेलामें वह भी अखबार पढते हुए रिटायर्ड बूढे की तरह सुस्त हो जाता है।

इस बेला तक मैं भी अपने सुबह के कामों से निवृत्त हो जाता हू। अब रास्ते पर ट्रॅफिक का शोर नही होगा और मेरे पास भी कोई नही आनेवाला है। फिर मै इझल के पास सरक जाता हू। वहॉ चित्रकारी के लिये पेंटिंग ब्रश, रंगों की टयूब्स, आदि सामान सजाकर कॅनवास से कव्हर हटा देता हू। बीच बीच में नसों में तनाव और सिरदर्द होने वाला है, जानता हूँ। लेकिन निरूपाय हूँ।

यह चित्र मैं कबसे बना रहा हूँ। कॅनवास पर रंग उभरते चलते है। अभी मेरी कोई थीम पक्की नही हुई है। न ही मुझे चित्र को पूरा करने की कोई जल्दी पडी है।

अमिता कई बार मुझसे कह चुकी है, -- तुम जान बूझकर कहते हो कि चित्र को पूरा करने की कोई जल्दी नही है। इससे तुम्हारे चित्रों की कीमत बढती है। जैसे कोई व्यापारी जान बूझकर अपने माल का शॉर्टेज निर्माण करता है तब खरीददार भी उतावली पर आ जाता है। फिर जैसे ही तुम्हारे चित्रों की प्रदर्शनी लगती है, पहले ही दिन कई सारे चित्र भारी कीमत पर बिक जाते हैं।

मुझे बनाने की सोचो भी मत तुम। मैं तुम्हे अच्छी तरह पहचानती हूँ। तुम्हारी चित्रकला की शैली भी मेरी पहचानी हो चुकी है। कॅनवास पर ब्रश से पहली रेखा उभरती है, तभी मैं समझ जाती हूँ कि क्या चित्र बनने वाला है।

अमिता की आदत है। एक साँस में ही इतना कुछ बोल जाती है। लेकिन जैसे तेज दौडती हुई रेलगाडी को कोई सिग्नल तटस्थ भावसे देखे ऐसा मेरा निराकार चेहरा देखकर उसके शब्द भी बिखर जाते हैं। फिर एक झटके से वह माथे पर आई लट को पीछे ठेलती है और जाकर मेरे पीछे रखे सोफे पर अलसाई बिल्ली की तरह बैठकर कुछ पढने लगती है। मैं भी बिना उसकी औऱ देखे अपने चित्र पर ध्यान देता हूँ। लेकिन उसके शरीर की चुलबुलाहट से ही मैं जान सकता हूँ कि वह क्या पढ रही हैं। तीन चार फीट दूरी पर ही तो है मुझसे। इतना मैं उसे अंतर्बाहय जानने लगा हूँ की कमरे की शांती मे उसके शरीर की हर गतिविधी मुझे घडी की टिकटिक की तरह सुनाई दे जाती है।

मेरे पास बहुत किताबें भी नही हैं। कुछ उपन्यास कुछ कविता संग्रह, कुछ चित्रकारो की चित्रात्मक पुस्तके। हाँ पूरा का पूरा शेक्सपियर साहित्य है मेरे पास। बार बार पढा है मैने। और अमिता ने भी। जितना वह मेरे अंदर की गहराई में धँसा है उतना ही उसके भी। तभी तो उसके उच्छ्वासोंसे मै जान लेता हूँ कि कब वह चंद्रमाधवी के प्रदेश में विचरण कर रही है और कब बादलों में उडान भर रही है। अमिता की नजर भी मुझे आर पार देखते हुए बता सकती है कि मैं अपने पॅलेट पर अगला रंग ऑलिव्ह ग्रीन लेने वाला हूँ या व्हिरिडियन ग्रीन। कई बार वह नाराज हो जाती है -- मैं क्यों यहाँ आती हूँ। क्यों तुम्हारे पीछे घंटो गुजारती हूँ?

ऐसे सवाल पर मैं आश्चर्य से उसे देखता हूँ। तुम्हारे ही कारण तो मैं ये चित्र बना पाता हूँ। तुम नही आई तो इस कॅनवास पर एक भी रेखा नही उभरेगी। फिर वह अपनी चपटी नाक को थोडा उँचा उठाकर कहती है -- बस बस अब कविता मत सुनाने लगना।

लेकिन फिर भी हम दोनों के बीच आज भी कई प्रश्न बाकी पडे हैं। मैं कौन हूँ और अमिता कौन है? कहाँ से आई है? क्या नाता है हमारा? क्यों वह मुझ पर इतना समय देती है? मेरे सारे चित्रोकी रेषाएँ उसे याद हैं। फिर भी बार बार उन्हें क्यों देखना चाहती है? उसके आने की आहट मात्र से मेरे शरीर में थिरकन सी क्यों होती हैं? स्पर्श के बिना ही कैसे हमे एक दूसरे के शरीर के तापमान का अंदाजा हो जाता है? ढेर सारे प्रश्न। लेकिन दोनों ने मानों गुप्तवार्ता की है कि इनके उत्तर नही ढूँढेंगे।

पर इस चित्र का क्या? यह तो अधूरा है। अमिता, जो बडे अभिमान से कहती थी कि मैं तो तुम्हारे ब्रश की पहली ही लाइन से चित्र का भविष्य बता सकती हूँ, वह भी आज मेरी ही तरह असमंजस में हैं। परसों मैने बडा व्याकुल होकर उससे कहा -- तुम ही कहो अब मैं कौन सा रंग उठाने वाला हूँ। वह भी हैरान थी-- मैं नही पकड पा रही आशुतोष । अभी तुम्हारे मन के अंदर इतने रंगों की धाराएँ बह रही हैं, इतना बडा झंझावात आया हुआ है कि मैं भी नही समझ पा रही।

बडी देर तक मौन हमारे बीच में जम सा गया। फिर बोली -- मुझे लगता हैं कुछ दिन मुझे यहाँ नही आना चाहिये। मैं इतनी रिती हो गई हूँ कि अब मैं तुम्हारे चित्रों को रंग और आकार नही दे पा रही। अब तुम्हें ही फिर से अपने चित्रों की खोज करनी पडेगी। मैं और भी अकुला गया -- मैं भी तो एक उजाड रेगिस्तान हो गया हूँ अमिता। लेकिन उसने मेरी ओर नही देखा। खिडकी से बाहर लटक रहे काले बादल को देखती हुई बोली -- नही, आगे से अपनी खोज खुद ही करो। कहते थे ना कि कभी न कभी अपना ओऑसिस मैं खुद बनाऊँगा।

लेकिन इस हालत मे? जब यह चित्र भी अधूरा है। जाने किस मुहूर्त पर यह चित्र धूमकेतू की तरह मन में आया और मूलाधार से मोर की तरह पंख फैला कर उठा। अब मस्तक पर धक्के दे रहा है। ऐसे में तुम दूर रहने की बात करती हो। अमिता कुछ नही बोली। पहले कई बार मेरी ऐसी ही आरजूओं पर वह रुक जाया करती। कहती, कोई जादू टोना कर देते हो तुम। लेकिन उस दिन चली गई और अब कई दिनोंसे वाकई इधर नही आई है। उसके सिवा कोई इधर नही आता। ठीक है, अब यह ब्रश ही मेरे से रंग भरवा लेगा। दूसरा उपाय भी क्या है मेरे पास? लेकिनं इस कमरे में पहले से बिखरी हुई कई आवाजें मुझ पर अंगुली उठाकर कहती हैं कि मैं ही जिम्मेदार हूँ अमिताको यूँ जाने देने के लिये। वे मुझे रातभर सोने नही देतीं। उन्हें कैसे समआऊँ कि आमिताने कभी वापस न आने की बात नही कही है। वह आनेवाली है वापस। और इसीलिये इस कॅनवाल पर मैं रंग फैलाता रहता हूँ। परत दर परत। और आज लगता है कि कुछ धूमिल सी आकृति लिये हुए एक चित्र बन रहा है। इन आकृतियोंकी गहराईमें मै झाँक कर देखता हूँ तो कॅनवास से निकलती हुई ओरछा के उसांसों की गर्मी मुझे छू जाती है। गहरे लाल नीले रंगों में बेतवा का पानी लहराने लगा है। उस पानी में कई महिने पहले हमारे प्रतिबिम्ब जम गये थे। अब उनमे से कुछ पिघल कर थरथराने लगे हैं। उनमें से काली चट्टानें सर उठाकर झाँकने लगी हैं।
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