सनातन हिंदू धर्म -- श्रद्धाके सोपान

सनातन हिंदू धर्म

आज हम इतना तो निर्विवाद रूपसे कह सकते हैं कि भारतवर्षमें चला आ रहा धर्म अत्यंत पुरातन है, सनातन है, चिरंतन है इन तीन एक जैसे दिखने वाले शब्दोंका अलग-अलग महत्व क्या है?

पुरातन अर्थात अत्यंत प्राचीन - हजारों वर्ष पहलेका यदि पुरातत्व विभागके उत्खननोंका प्रमाण माने तो भारतमें उत्खननमें पाए गए कई शिल्प, वस्तुएं, मुद्राएं आदि की कालगणना सात-आठ हजार वर्षतक पीछे जाती है अर्थात कमसे कम इतनी पुरातन हमारी संस्कृति है यदि हम अपने ग्रंथोंमें स्थान स्थान पर वर्णित घटनाओंके समयकी आकाशीय ग्रह स्थितिका प्रमाण माने तो वह घटनाएं दस-बारह सहस्त्र वर्ष पुरानी जानी जा सकती हैं और यदि हमारे ग्रंथोंमें वर्णित कालगणनाको देखें जिसमें पृथ्वीकी उत्पत्तिसे लेकर ग्रंथ रचनाके दिनतकका इतिहास लिखनेका प्रयास किया गया है तो वह कालगणना हमें लाखो वर्ष पूर्वतक ले जाती है

एवंच, हमारे ग्रंथोंकेर्णनानुसार भारतकी भूमिपर कुछ घटनाएं लाखो वर्ष पूर्व घटित हुई जान पड़ती हैं कई बार यह कहा जाता है कि इतनी पुरातन क्या केवल भारतकी ही संस्कृति थी? यह भी तो संभव है कि उस पुरातन कालमें भारतमें पल्लवित हो रही सभ्यतासे भिन्न कुछ अन्य सभ्यताएं भी विश्वमें कहीं कहीं चल रही हों। तो चलो, इसे भी मान लिया फिर भी इतनी बात तो बाकी रह जाती है कि वे सारी सभ्यताएं मिट गई, उनके सारे अवशेष और सारे पहचान चिन्ह भी मिट गए उनके बताए हुए सिद्धांतोंका अथवा नियमोंका आचरण करनेवाला कोई भी नहीं बचा, जबकि भारतीय संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, धर्म, चाहे जो शब्द कह लीजिए - यह आज भी टिका हुआ है आचार विचारमें टिका हुआ है, श्रद्धामें भी टिका हुआ है इस कारण पुरातनके साथ-साथ वह महत्वपूर्ण भी बना हुआ है

सनातन धर्म- भारतियोंकी मान्यता है कि परमेश्वरकी, इच्छासे सृष्टिकी उत्पत्ति हुई, परंतु उस उत्पत्तिमें सृष्टिके साथ-साथ पृथक् रूपसे, एक संयुक्त युग्मके रूपमें ऋतकी भी उत्पत्ति हुई ऋत अर्थात वे नियम जिनके आधारपर सृष्टि चलेगी ऋतके अभावमें सृष्टि तितर-बितर हो जाएगी, बिखर जाएगी और सृष्टिके अभावमें ऋतका कोई उपयोग ही नहीं है अर्थात सृष्टि और ऋत अनन्याश्रयी है यह ऋत जो सृष्टिके आदिकालसे चला आ रहा है इसीका दूसरा नाम सनातन है यह सनातन धर्म ही है जो सृष्टिको चलाता है, सुचारू रखता है, उसका पालन पोषण करता है संसार की प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन वह ऋतका, सनातन धर्मका पालन करती है सारे चेतन प्राणी भी इनका पालन करते हैं और मनुष्यको तो अन्य चेतन प्राणियोंकी अपेक्षा अधिक मेघा बुद्धि और ज्ञान प्राप्त है इस कारण वह सनातन धर्मकी गहराईको अपने ज्ञानके आधारसे जान सकता है और यह भी समझ सकता है कि मनुष्यसमाजको बनाए रखनेहेतु भी ऐसे ही कुछ नियम आवश्यक हैं। वह उन नियमोंका पालन करता है

इन नियमोंको हम सत्यके नियम कह सकते हैं अर्थात जिस प्रकार जड़-चेतन इत्यादि चराचर सृष्टिको चलानेके लिए ऋत है उसी प्रकार जो अति चेतन मनुष्य जाति है उसका समाज सही रूपसे चले और ऋतके विरुद्ध ना चले इसके लिए जो नियम बने वह सत्यनिष्ठाके नियम हैं तो एक प्रकारसे ये कह सकते हैं कि सृष्टिको चलाए रखनेके लिए ऋत और मनुष्य समाजको चलाए रखने के लिए सत्य है। इन दोनोंको समझनेकी और उनका अनुपालन करनेकी आवश्यकता हर समाज को है यही ज्ञान जब भारतके ऋषि मुनि और ब्रह्मज्ञानियोंके सम्मुख प्रकट हुआ तब उन्होंने सनातन धर्मके अनुपालनका व्रत लिया वही सनातन धर्म भारतवर्षमें अब तक चला आ रहा है भगवत गीता में कहा है असत्कृतमवज्ञातं च तत् प्रत्य नो इह। भारतीय समाजने ऋत और सत्यके नियमोंको समझा, उनकी उद्घोषणा एवं व्याख्या करी और सनातन धर्मके पालनमें अपना योगदान बढ़ाया

चिरंतन - भारतियोंद्वारा निभाया जाने वाला यह धर्म चिरंतन है, शाश्वत है क्योंकि वह हमें सृष्टिका विनाश करनेसे भी रोकता है और हमारे लिए समृद्धिका मार्ग भी प्रशस्त करता है आधुनिक शब्दोंमें कहा जाए तो सनातन धर्म एक सस्टेनेबिलिटी मॉडल है इस मॉडलमें विकासकी अवधारणा पृथ्वीके दोहनकी नहीं वरन पृथ्वीके संसाधनोंके संरक्षणको महत्व देनेकी है मनुष्य अपनी ज्ञानसंपदाका विकास करे और ऐसे धर्मपर चले जहां अर्थ काम और मोक्ष भी पृथ्वीके दोहनका कारण ना बन सके समृद्धि तो हो परंतु त्याग भी हो तेन त्यक्तेन भुंजीथः। उपभोगमें भी संयम बरतें, एक सीमाके अंदर रहे तो उपभोग भी लंबे समय तक प्राप्त होता रहेगा सीमासे बाहर गए तो विनाशकी ओर धकेलेगा आणविक ऊर्जाका ही उदाहरण लेते हैं इस ऊर्जाको साधनेके बाद अब मनुष्यके हाथमें है कि वह इसे अत्यंत अल्प मात्रामें निकलने दे और उसके उपयोगसे असंख्य कार्य करें -- यथा इंधनके रूपमें, दवाइयां बनानेके लिए, अन्वेषणाके साधनके रूपमें, उपग्रहोंको गति देनेके लिए इत्यादि इत्यादि या फिर इसे असंयमित मात्रामें उत्पन्न करे और हिरोशिमा या चेर्नोबिल जैसा हाहाकार मचाये।

इसी कारण हमारी भाषामें संतोष, त्याग, आत्मबोध, न्यास, वानप्रस्थ, प्रव्रज्या, तपश्चर्या, संयम, ब्रम्हचर्य, तितिक्षा आदि शब्द बने जिन्हें केवल भारतीय जनके परिप्रेक्ष्यमें ही समझा जा सकता है पश्चिमी सभ्यतामें केवल प्रकृतिके दोहनका मॉडल ही स्वीकार्य है इसलिए वहां उपभोगको ही विकासका या प्रगतिका प्रमाण माना जाता हैकंजूमर इंडेक्स अर्थात आपने कितना खाया -- वही प्रगति मापनेका प्रमाण है। इसलिये उस सभ्यतामें वहां ऊपरोल्लिखित शब्दों और उनसे वर्णित होनेवाली संकल्पनाओंका कोई महत्व नहीं है

आज भारत ऐसे मोड़ पर है जहां भले ही पश्चिमी चकाचौंधमें हमें लगे कि उनका उपभोक्ता मॉडल ही सबसे सही है र भारतकी भूमि पर सहस्रों वर्ष पूर्व बना संतोषका मॉडल सही नहीं है लेकिन हमें कमसे कम इस मॉडलकी जानकारी अवश्य रखनी चाहिए अन्य देशोंके पास तो विचार करने लायक पर्याय भी नहीं हैभारतीय संस्कृतिने हमें ऐसा पर्याय दिया है उसे आज हम भले ही स्वीकार न करें लेकिन उसके अस्तित्वकी जानकारी रखना हमारे लिये अवश्य ही लाभप्रद है।


Comments

Popular posts from this blog

मी केलेले अनुवाद -- My Translations

एक शहर मेले त्याची गोष्ट

उद्धव गीता भाग १ -- भांडारकर व्याख्यान दि. १२ जून २०१९