व्यक्तिमत्व विकासके संस्कार
व्यक्तिमत्व विकासके संस्कार
समाज,
समष्टि
या राष्ट्र व्यक्तियोंसे
बनता है। जहाँ
एक ओर समष्टि अपने
एकत्रित उपलब्ध संसाधनोंके
द्वारा व्यक्तिकी रक्षा और
पोषण करते हैं वहीं दूसरी ओर
व्यक्ति अपने गुणोंसे समष्टिको
अधिकाधिक
समृद्ध और क्षमतावान
बनाता है। इस प्रकार
दोनों एक दूसरेके पूरक होकर
राष्ट्रको तथा विश्वको भी
अभ्युदयकी दिशामें ले चलते
हैं।
लेकिन
समष्टिको आगे ले जा सके इसके
लिए व्यक्तिमें कुछ गुणोंको
सतर्कतापूर्वक स्थापित करना
और सम्मानित करना यह समाजधूरिणोंका
प्रथम कर्तव्य है।
यहाँ हम उन आवश्यक
गुणोंकी चर्चा करेंगे।
१.
सत्यनिष्ठा--
यदि
एक शब्दमें भारतीय दर्शनका
परिचय देना हो तो मेरे विचारसे
वह शब्द है सत्यनिष्ठा।
सत्यके बिना जीवन नहीं है,
सृष्टि
नहीं है,
सृजन
नहीं है और ज्ञान
नहीं है। हमारे
वेदोंका मूलमंत्र
है -
सत्यमेव
जयते नानृतम्।
इससे अधिक विज्ञानवाक्य
कोई नहीं है। सत्यनिष्ठा
संपूर्णता वैज्ञानिक अवधारणा
है,
क्योंकि
सत्य जाननेसे ही क्रिया संपन्न
होती है या ज्ञानका
सोपान चढ़ा जा सकता है।
सत्यनिष्ठा
जीवनमें दो प्रकारसे कार्य
करती है। मनुष्यके
मनमें जो विचार हैं वही वाणीसे
प्रकट हों
और वही कर्मको भी निर्देशित
करते हों तो ऊर्जाकी
बचत होती है। यदि
विचार-वाणी-कर्मोंमें
एकवाक्यता ना हो
तो मस्तिष्कको वही काम तीन
बार करना पड़ेगा और इसमें तीन
गुनी ऊर्जा व्यर्थ ही खपत
होगी। ऊर्जाका
अपव्यय मृत्युकी ओर ले जाता
है और उसका सही व्यय जीवन देता
है।
दूसरी
ओर सत्यनिष्ठासे ही ज्ञानका
उदय,
प्रसार
या वृद्धि हो सकती है।
इसलिए सत्यनिष्ठाको एक व्रतके
रूपमें स्वीकार कर लेनेसे
वाणीकी शक्ति
बढ़ती है और ऐसा मनुष्य वाचासिद्ध
हो जाता है। उसमें
आशीर्वादकी शक्ति आती है।
हमारे राष्ट्रका बोध वाक्य
भी है सत्यमेव जयते।
२.
श्रमजीविका
अर्थात्
मेहनतकी कमाई
--
मनुष्यको
अपना जीवन निर्वाह करने हेतु
परिश्रम करना पड़ता है।
यही परिश्रम उसे विविध अनुभव
तथा अनुभूतियां दे
जाता है जो ज्ञानप्राप्तिमें
महत्वपूर्ण हैं। हमारी
संस्कृति कहती है
-
परिश्रमसे
कमाओ और उपभोग करो परंतु दूसरेके
परिश्रमकी कमाईको मत छुओ।
चोरी मत करो।
अर्थात में अपने परिश्रमसे
जो धन अर्जित करूँ
वही मैं सुयोग्य मानूँ
परन्तु कभी भी दूसरेके
अर्जित और संचित
धनके लिये
मोह ना करूं।
समाजमें यह भावना ना रहे तो
हर कोई दूसरेकी वस्तुएं हड़पनेका
प्रयास करेगा। ऐसे
समाजमें कोई नया ज्ञान
या कला नहीं पनप सकती।
कोई स्थापत्य,
कोई
स्थैर्य कभी
नहीं आ सकता। वह
समाज चोर लुटेरोंका समाज बन
जाता है। फिर उसमें
कोई समृद्धि नहीं
हो सकती। अतः वैयक्तिक
जीवनमें यह अचौर्य या
अस्तेय का व्रत बनाए
रखना आवश्यक है।
इसी कारण हमारा
प्रथम उपनिषद ईशावास्य
कहता है -
मा
गृधः कस्यस्विद्धनम्।
३.
नियमबद्धता
या अभ्यास
के गुणसे व्यक्तिकी इच्छाशक्ति
दृढ़ होती है। किसी
भी कार्यको नियमपूर्वक,
निरंतरतासे
और प्रसन्नतासे
करते रहना ही अभ्यास है।
मनकी चंचलताको दूर करनेके
लिए,
एकाग्रताके
लिए और संकल्पित कार्यको पूरा
करनेके लिए जो दृढ़ इच्छाशक्ति
होनी चाहिए वह नियमबद्धता
से आती है। इसी कारण
हमारे बड़े बूढ़े कहते हैं
कि अपने लिए कोई एक छोटासा
नियम स्वीकार कर लो और प्रतिदिन
उसका स्मरणपूर्वक निर्वाह
करो तो उससे लाभकारी परिणाम
अवश्य मिलते हैं।
आजकल हमारे समाजमें एक दोष
आ गया है कि हम किसी कामको
निरंतरतासे करनेके स्थानपर
उसे एक ही बार भव्यतासे उत्सवका
रूप देकर करते हैं और फिर इस
कार्यको और उसके उद्देश्यको
भी भूल जाते हैं।
यह ऐसा ही है कि कोई व्यक्ति
रुद्राभिषेक करने बैठे और
अधीर होकर पूरे घड़ेका जल एक
ही बार शिव पर उंडेल
दे। निरंतरताके
गुणको आत्मसात करनेहेतु हमें
पूर्वजोंने कुछ युक्तियां
बताई हैं जैसे प्रतिदिन किसी
पेड़को पानी देना या प्रातः
जल्दी उठना,
नियमित
समयपर पढ़ाई करना,
इत्यादि।
इस प्रकारसे नियमपूर्वक कार्य
करनेको ही व्रतकी संज्ञा दी
गई है
४.
राष्ट्रप्रेम
- अपने
नजदीकी परिवेश या समाजके
चिंतनका विराट रूप
है राष्ट्रप्रेम।
राष्ट्र शब्दमें ही राट्
अर्थात विस्तृत स्तरपर
एकमान्यता होनेका
भाव समाहित है।
मनुष्य अपने जीवनमें जो भी
कर रहा है उसके साथ
उसे अपनी विरासतका बोध हो,
आत्मगौरव
हो और उसकी सुरक्षा हेतु वह
विचारशील व प्रयत्नशील हो।
वह दूरतक सोच सके,
सुदूर
भविष्यको देख सके और एक विस्तृत
प्रदेशके निवासियोंके प्रति
साझा विचार कर सके।
तब उसे राष्ट्र विचारक कहा
जाएगा। हमारे
यज्ञोंमें जो
विश्वदेवके प्रति चिंतावहन
करनेका भाव है वही विचार एक
प्रकारसे आजकी शताब्दीमें
भारत राष्ट्रके प्रति
राष्ट्रप्रेमका प्रतीक है।
राष्ट्रचिंतन ना करनेसे हमारी
पूरी विरासत,
संस्कृति
तथा भविष्य भी संकटमें हो सकते
हैं। उस संकटके
प्रति सजग होकर कार्य करना
यह गुण भी आज के युवाओंमें
अत्यावश्यक हो जाता है।
५.
शुचिता
-
हमारे
जीवनमें शुचिताका बड़ा ही
महत्व है क्योंकि इसके बिना
हम जीवनके नहीं वरन मृत्युके
मार्ग पर घसीटे जाते हैं।
शरीरकी शुद्धि और अन्नकी
शुद्धि हमारे शारीरिक स्वास्थ्य
हेतु अत्यावश्यक
है। इसी प्रकार मनकी
शुद्धि मानसिक स्वास्थ्य
हेतु आवश्यक है।
एक शुद्ध मन क्रोध एवं
हिंसासे रहित होता है।
विचारोंकी शुद्धिसे हम ईर्ष्या
मत्सर द्वेष
इत्यादिसे बच बचते हैं।
एवंच,
हमारे
आहार-विहार
तथा आचार-विचार
में शुचिताका अति महत्व है।
६.
शौर्य
और सौहार्द -
यह
गुण-युग्म
प्रत्येक व्यक्तिमें होना
आवश्यक है। संकटकी
घड़ियोंका सामना करनेके लिए
शौर्य चाहिए और समाजमें बंधुभाव,
समरसता
तथा शांति बनाए रखनेके लिए
सौहार्द चाहिए।
सुरक्षा व सृजन हेतु शौर्य
तथा सौहार्द ये दो
गुण अनन्यरूपसे
महत्वके है।
७.
ज्ञानसाधना-
कहते
हैं कि जिसे मनुष्य जीवन मिला
है,
समझो
कि वह उसके पुण्यप्रतापसे ही
मिला है। क्योंकि
इस योनिमें जीव
अपनी साधनासे सतत अपने ज्ञानकी
बढ़ोतरी कर सकता है और आकाशकी
ऊंचाइयोंको भी छू सकता है।
साधनाके बिना ज्ञानकी
अभिवृद्धि नहीं होती और ज्ञानके
बिना साधना करनेकी बुद्धि
नहीं होती। ज्ञानसाधना
के बिना मनुष्य निरा
पशू ही रह जाएगा।
गीताका वचन है कि ज्ञानसे अधिक
पवित्र कुछ भी नही है।
प्रत्येक
परिवारके माता-पिता
और ज्ञानीजनोंको चाहिए कि
बच्चोंको इन ७ गुणोंके
संस्कार बचपनसे ही डालें,
क्योंकि
संस्कारसे ही व्यक्तित्व
बनता है।
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