शिव और राम - उपास्य या मिथ्या? क्या कहते हैं हमारे विद्यालय?


शिव और राम - उपास्य या मिथ्या?
क्या कहते हैं हमारे विद्यालय?
- लीना मेहेंदळे

भारतीय वाङ्मयमें एक गलत शब्द घुस गया है -- मायथोलॉजी या मिथक । यह अब हमारे विद्यापीठोंमें भी धडल्लेसे सुप्रतिष्ठित हो रहा है । भारतकी कई युनिवर्सिटियोंमें मायथोलॉजीके क्रॅश कोर्समें रुद्रको मिथिकल चरित्रके रूपमें पढाया जाने लगा है। यह हमारी उपासना-आधारित संस्कृतिको गहरी चुनौती है। क्या भारत झेल पायेगा ये चुनौती ? आज उसीका परामर्श लेना है।

विश्वभरकी सारी सभ्यताओंका ब्यौरा लें तो हम पाते हैं कि निर्गुणकी
उपासना और सगुणसे प्रीत ये दो बातें सारी सभ्यताओंमें थीं। इस सगुण-
प्रीतमें थोडासा श्रद्धाभाव भी आ जाता है, भययुक्त आदर भी आता है
और कल्पनाविलास भी बडी मात्रामें आ जाता है। सगुण-प्रतीकोंमें सूर्य,
वर्षा, मेघ, बिजली, चंद्रमा, सागर, नाग ये अतिचर्चित प्रतीक रहे। सगुण
प्रतीकोंकी विशेषता ये होती है कि वे होते तो हैं कोई प्राकृतिक वस्तुमान
लेकिन कल्पनामें उन्हें मानवी रूप दिया जाता है। उनमें श्रद्धालु हों तो वे
प्रतीकोंसे मनौतियाँ भी माँग लेते हैं और उनके दैवी गुणोंसे लाभान्वित
होनेकी आस भी रखते हैं।
सगुणसे केवल प्रीत रखनेवाली सभ्यताओंमें निर्गुणप्राप्ति असंभव है क्योंकि उसका तरीका कोई नही जान सकता। प्रायः सभी निर्गुण-उपासक सभ्यताएँ निर्गुणका केवल कृपाप्रसाद चाहती हैं ताकि उनका मनुष्यजीवन सुखसमृद्धिपूर्वक व्यतीत हो । इसके विपरीत भारतमें जन्मी सभी पथ, पंथ, परम्पराओंकी एक समान मान्यता है जो इन भारतीय संस्कृतियोंको संसारके अन्य भूभागोंमें उपजी संस्कृतियोंसे अलग करती हैं। मनुष्य अपनी उपासनाके बलपर परतत्वको पा सकता है । अहं ब्रह्मास्मि। तत् त्वमसि। और प्रज्ञानं ब्रह्मः जैसे वचन बताते हैं कि मैं ब्रह्म हूँ, तू भी ब्रह्म हैअनुभूतिजन्य ज्ञानसे ब्रह्मप्राप्ति होती है। तपसे ज्ञानप्राप्ति होती है। उपासनायुक्त तपसे अनुभूति, ज्ञान व परतत्वकी प्राप्ति होती है। यह बृहद्दर्शन केवल भारतीय संस्कृतिमें है।

और यह परतत्व, यह ब्रह्म कैसा है - सर्वज्ञ, शुद्ध, अपापविद्ध है। अविद्या और विद्या- दोनोंका एकत्रित अभ्यास करनेसे मनुष्य मृत्युकी दिव्य अनुभव लेते हुए आगे मार्गक्रमण करता हुआ अमृतकी अनुभूति लेता है। इस प्रकार ईशावास्य उपनिषद हो, पातज्जल योगसूत्र हो, कठोपनिषद हो या भगवद्गीता हो, इन सभी ग्रंथोंमें प्रतिपादन है कि मनुष्यको परब्रह्म प्राप्ति निःसंशय रूपसे होती है और उसकी साधनाके लिये ये ये तरीके हैं।

रूद्र, लघुरुद्र, महारूद्र, महामृत्युंजयजप, आदियोगी, महेश्वर, तपस्यारत शिव, शिवकी तपस्या करनेवाले कृष्ण और कलियुगके लिये एकही मंत्र हरि ॐ तत्सत् बतानेवाले शिव, बमबम भोलेकी गूँजके साथ गंगोत्रसे रामेश्वर गंगाजल ले जाते कांवडिये, बारह ज्योतिर्लिंगमें सुप्रतिष्ठि शिव । मेरे बचपनकी ये सारी मानसिक छवियाँ युवावस्थासे लेकर प्रौढ और फिर सीनियर सिटिजनतक आते आते भी कभी धूमिल नही हुई। जाग्रत शक्तिपीठ , गणेशपीठ, भगवती जागरण, मातारानी की उपासना, हनुमान भक्तिमें बलोपासना, इत्यादि संकल्पनाएँ कभी अबूझ नही लगीं। मेरे जन्मगांवमें ही चिंतामण मोरया नामसे एक जागृत गणेश मंदिर है और संकट निवारणके लिये आज भी हजारों गुहारें वहाँ लगती हैं। जबतक मेरी माँ जीवित रहीं, हम अपने छोटे मोटे संकट उन्हें बताया करते और वे झट हनुमानजीके व्रतरूप पांच शनिवार उपवास रखनेका संकल्प लेतीं और हमारे संकट निवारण हो जाते।
संकट मिटे हटे सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बल वीरा।

घरमें गहन वैष्णव परंपरा थी। दादाजी, पिताजी और स्वयं मैं श्रीकृष्ण उपासक रहे हैं।पिताजी नियमित ध्यान किया करते। उपासनाका फल मिलता है, यह व्यक्तिगत अनुभव कई बार लिया है। उपासनाकी क्रमबद्ध विधियाँ अत्यल्पतासे ही सही, सीखी भी हैं। और इतना पुस्तकी ज्ञान भी है कि उन विधियोंसे आगे बढा जा सकता है।

जिस प्रकार परब्रह्म उपास्य है और चिन्तनीय है उसी प्रकार समाजधारणा भी उपास्य और चिन्तनीय है। धर्मकी व्याख्या ही समाजधारणाके हेतु कही गई है।
भारतीय संस्कृतिका महावाक्य है -परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय, संभवामि युगे युगे।

यहाँ हमें सगुण-उपासना और सगुण-प्रीतमें अन्तर समझना पडेगा। केवल
भारतीय संस्कृति ही है जिसमें सगुण कल्पना या प्रीतका विषय नही वरन
साधनाका विषय है। सगुणप्रीतमें कल्पनाविलास महत्वपूर्ण परिचायक है
जबकि सगुण-उपासनामें सगुणको निर्गुण-प्राप्तिके मार्गमें ज्ञानसोपानकी
तरह प्रयुक्त किया जाता है। इसी कारण हमारे वेद-उपनिषद आदिमें
सगुण-प्रतीकोंके मंत्र हैं, जनके जापका विधान है। एक गायत्री जैसा मंत्र था
जिसे जापद्वारा साध लेनेपर विश्वामित्रमें इतना सामर्थ्य आ गया कि वे
प्रतिसृष्टिका निर्माण कर सकें। इसीकी चर्चा महर्षि पतञ्जली अपने
योगसूत्रमें करते हैं, हमारे मुण्डकादि उपनिषद करते हैं। लेकिन इस
अन्तरको न किसी अंगरेज शासकने समझा न किसी इतिहासकारने। और
मुझे शंका है कि कदाचित हमारे वर्तमान धर्मावलम्बियोंने भी इसे नही
समझा है। हालाँकि जप-जाप्य, यज्ञ, अनुष्ठान आदिमें उनकी गति है,
लेकिन हमारे सगुण-प्रतीक ज्ञानमार्गके सोपान हैं अतः मिथ नही हैं, इस बातको वे ठोस आत्मविश्वाससे नही कह पा रहे हैं।

भारतियोंके दृष्टिकोणमें बसा प्राकृतिक प्रतीकोंको समादर, और उनके मानवी रूप हमारे लिये केवल कल्पनामात्र नही है। हमारा उनसे नाता है। वे हमारे सामाजिक जीवनमें भागीदार हैं। इसी कारण भारतके सगुणप्रतीक कहीं अधिकतासे हैं। गंगा, नर्मदा, गंडकी आदि नदियाँ शिव और विष्णुके
माध्यमसे निर्गुण उपासना की सीढी बनती हैं और यम जैसी मृत्यूदेवता
स्वयं नचिकेतके लिये ज्ञानमार्गको प्रशस्त करती है। संसारकी किसी भी
अन्य सभ्यता या धर्ममें अहं ब्रह्मास्मि या तत्वमसि या प्रज्ञानं ब्रह्मः जैसे
विधान नही किये गये, नही किये जा सकते क्योंकि ज्ञानसे या किसीभी
अन्य प्रकारसे निर्गुण ब्रह्मतक पहुँचा जा सकता है, यह बात ही उनकी
कल्पनासे परे है। अति विकसित कहलानेवाल इजिप्शियन या ग्रीक संस्कृतियोंमें भी परब्रह्म जैसी कोई संकल्पना नही दीखती।

ज्ञान व मोक्षकी प्राप्तिके पश्चात् साधकका समाजकार्य आरंभ होता है। राजपुत्र सिद्धार्थ गौतमको जब बोधिप्राप्ति होती है, तब सारनाथमें उपदेश दिया जाता है जिसका उद्दिष्ट है बहुजन हिताय बहुजन सुखाय। महाराष्ट्रके संतशिरोमणि तुकाराम कहते हैं -- आता उरलो उपकारापुरता – अब विठ्ठलकी (श्रीकृष्ण) प्राप्ति हो चुकी - अब समाजके उपकार हेतु बाकी बचा हूँ। अवधूत दत्तात्रेय हर प्रकारकी सिद्धि पानेके बाद समाज प्रबोधन हेतु अविरत विचरण करते हैं। संपूर्ण संन्यास परंपरा समाजमें समुपदेशके लिये बनी है। ऐसे संन्यासियोंके जीवितार्थ अन्नव्यवस्थाकी जिम्मेदारी गृहस्थकी है। इस प्रकारके प्रश्नोत्तर महाभारतके यक्षप्रश्न प्रसंगमें हैं।

इस पूरी साधनामें जिस परब्रह्मको पाना है. वह निर्गुण निराकार तो है परन्तु उसका सगुण रूप भी प्रमाण है। भक्तिमार्गपर चलनेवाले सामान्यजनके लिये निर्गुण उपासनाके स्थानपर सगुण उपासना भी उतनी ही फलदायिनी कही गई है। भारतीय संस्कृतिकी दूसरी विशषेता है कि इसमें साधनाकी क्रियाएँ और उनका क्रम बताया गया हैं। एकेक क्रियाको करते हुए मनुष्य क्रमशः परब्रह्मके निकट पहुँचता चलता है। कौन कितनी दूरतक पहुँचेगा यह उसकी साधनापर निर्भर है । अलग – अलग पडावोंतक पहुँचनेकी साधना है। आरंभिक साधनामें सगुणका महत्व है, लेकिन यही सगुण उपासना हमें निर्गुणतक भी पहुँचा सकती है और सिद्धोंने वर्णन किया है कि वहाँ पहुँचकर, सगुण – निर्गुण जैसा कोई भेद नही रहता । इसी कारण सगुण उपास्यकी भी उसी भाँति आराधना की जाती है जैसे निर्गुणकी ।

आराधनाका फल है उस महाज्ञानकी प्राप्ति जो समाजकी धारणाके लिये काम आ सके । वरना है तो वही शिव जिसकी प्रसन्नताके लिये तपस्या करनेवाले अनन्यसाधारण नाम हैं भस्मासुर और रावण ।
भस्मासुरकी वर प्राप्ति सृष्टिको ही भस्म करनेकी इच्छासे थी। रावण जैसा महाज्ञानी और अद्भुत शिवतांडव स्तोत्रका रचयिता भी समाजके लिये नही वरन् स्वार्थके लिये शिवको कैलास महापर्वतसे उठाकर लंका ले जाना चाहता था। तपस्याका ऐसा फल लेनेवाले अन्ततः धर्मरक्षा हेतु वध्य हो जाते हैं। परन्तु जो ज्ञानको संसारमें फैलाते है वे समाजधारणा हेतु ही कार्य करते हैं। परमारथके कारणै साधुन धरा सरीर । वे ऋषिमुनि हो जाते हैं, द्रष्टा हो जाते हैं और ज्ञानभण्डारके मूर्तरूप वेद भी स्वयमेव उनके सम्मु प्रकट हो जाते हैं।

कुल मिलाकर हिंदूसहित सभी भारतीय संस्कृतियों में तीन मान्यताएँ हैं जो केवल भारतीय विशषेता कही जायगी ।
मनुष्यको उपासनासे परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। इसकी विधियाँ भी हैं और उपास्य देवता भी हैं।
इस उपासनामें निसर्गका महत्व अत्याधिक है। इसी कारण निसर्ग भी उपास्य है। सूर्य, चंद्रमा, हिमालय, गंगा, वृक्ष, पर्जन्य, समुद्र आदि भी उपास्य हैं, आदरणीय हैं।
उपासनासे ज्ञानप्राप्ति होती है जो समाजमें फैलाकर उससे समाजकी धारणा व उत्कर्ष किये जाते हैं।
एक चौथी विशेषता भी हैं कि ज्ञानसाधना तथा ईश्वरप्रणिधानमें निमग्न ऋषियोंके भरणपोषण गृहस्यधर्मी लोग करें । इस हेतु एक ओर दानकी महत्ता है तो दूसरी ओर ऐसे ऋषियोंके लिये अपरिग्रहका विधान है।

सहस्त्रों वर्ष पूर्व इस भारतीय संस्कृतिकी अनुगूंज विश्वमें चारों ओर फैली थी। इससे प्रभावित ग्रीक संस्कृतिने इस पूरे तत्वदर्शनको तो नही जाना लेकिन निसर्ग पूजाको आत्यंतिक भावसे अपनाया। इस प्रकार उनके साहित्यमें भी सूर्य, चंद्रमा, वरूण, पृथ्वी, बिजली, पर्जन्य इत्यादि चरित्रनायक अवश्य हैं, लेकिन निसर्गपूजासे परे उपासना और उपासनासे ज्ञानसाधनाकी सीढीयोंका प्रवास ग्रीकोंने नही किया।

युरोपीय देशोंका गहरा परिचय ग्रीकोंके साथ रहा। वहींसे ग्रीको-रोमन
भाषाओंका उदय हुआ। ग्रीकोंने अपने सगुण प्रतीकोंके विषयमें अपने
कल्पनाविलाससे कई काव्यरचनाएँ, नाटक, कथाएँ आदि लिखे। आज हम
उनकी पुनरावृत्ति हॉबिट, हॅरी-पॉटर, स्टार-वॉर आदि कथानकोंमें पाते हैं।
स्वयं ग्रीकोंने इसे मायथॉलॉजी a collection of Myths कहा।

ग्रीक देशपर रोमन आक्रमण होते रहे और कालान्तरमें ईसापूर्व ३०० से १५०के बीच ग्रीकोंके सतत वैरी रोमनोंने ग्रीकोंपर संपूर्ण विजय पाई। फिर रोमन साम्राज्य भी डांवडोल होने लगा। अब उनके राजा काँन्सण्टंटाईनको एक आयकॉनकी आवश्यकता हुई जिसके नामपर रोमनोंको फिर जोशमें लाया जा सके। उसने आयकॉनके हेतु ईसामसीहको चुना। स्वयं ईसाई बना, सबसे ईसाई बननेको कहा और जिसने विरोध किया उसे नष्ट करनेके लिये युद्ध किये। ये युद्ध पूरे यूरोपमें लडे गये और वहाँ वहाँकी टोलियोंको नष्ट किया गया। ये टोलियाँ भी बहुलतासे निसर्गपूजक थीं – उनके लिये क्षुद्रतादर्शक पागान शब्द कहा जाने लगा । इस प्रकार ग्रीकोंसहित पूरे युरोपकी पागान संस्कृतिको नष्ट किया गया। मजेकी बात देखिये कि इन टोलियोंमें कडाकेके जाडेमें बर्फसे लदे पेडोंपर कोई चमकीली वस्तुएँ या दिये टाँगनेका पागान त्यौहार हुआ करता था। उसे रोमनोंने अपना लिया और वही आज क्रिसमसके नामसे जाना जाता है।

लगभग तीन सौ वर्षतक चले ग्रीको-रोमन युध्दमें रोमनोंने ग्रीकोंके साहित्यको नष्ट नही किया था । रोमन विजेता हुए तब भी ग्रीक साहित्य और कल्पना-रमणीयतासे अत्यंत प्रभावित हुए बिना वे नही रह सके। ग्रीक सभ्यता तो परास्त-ध्वस्त हो गई लेकिन उनके साहित्यको रोमन विजेताओंने सिरआँखोंपर बिठा लिया । वह साहित्य निसर्गदेवताओंको मानवी रुपकी कल्पना देकर लिखा गया था। निसर्ग देवता – जैसे सूर्य, समुद्र, चंद्रमा, तारांगण इत्यादिमें मानवी भावनाएँ जैसे प्रेम, द्वेष, शौर्य, औदार्य, सत्तालालसा, युध्द, षड्यंत्र, हार, जीत इत्यादि आरोपित थीं। इन भावनाओंमें डूबे निसर्गदेवता अथवा देवियोंकी काल्पनिक कथाओंसे यह ग्रीक साहित्य भरा पडा था। उसे रोमनोंने बडे चावसे अपनाया। वे काल्पनिक थीं, मिथ्या थी, तो इस पूरे साहित्यके लिये नाम पडा मायथोलाँजी।

ग्रीक निसर्गपूजक अवश्य थे परन्तु उपास्य – उपासनाकी संकल्पना उनके पास नही थी। भारतीय पद्धतिमें उपास्यको आलंबन बनाकर परमात्माकी प्राप्तिका, मोक्षका लक्ष्य था । वैसी ऊर्जितावस्था ग्रीकोंकी निसर्गपूजामें नही थी। अतः उनकी मायथोलॉजी केवल मनोरंजनका साधन मात्र रह गई। या यह भी संभव है कि शायद वहाँ भी उपास्य–उपासनाकी परंपरा रही हो परन्तु रोमनोंद्वारा पागान अर्थात निसर्गपूजक संस्कृतिका पूर्ण विध्वंस हो जाने के बाद अगले हजार वर्षांमें वह परंपरा भी पूर्णरुपेण समाप्त हो गई और केवल उनकी मिथ्याभावना बनी रही।

यूरोपमें ईसाइयतके विस्तारके करीब हजार बारह सौ वर्षोंबाद अलग अलग यूरोपीय देशोंने आशियाई देशोंको जीतकर अपना साम्राज्य विस्तार किया, जिसमें भारत सहित श्रीलंका, इडोनेशिया, फिलिपीन्स, इत्यादि पर विजय पाई। चीन व जपानपर विजय तो नही पाई परन्तु बीसवीं सदिकी मान्यताओं प्रभावसे वे दोनोंभी भी अछूते नही रहे।

उल्लेखनीय है कि भारतकी पूर्वदिशाके प्रायः सभी देश बुद्ध धर्मको अपना चुके थे। बुद्धने मूर्तिपूजाको नकारा था परन्तु बोधि प्राप्तिका महान लक्ष्य बौद्ध परंपरामें भी है जबकी ईसाई या मुस्लिम धर्ममें सनातन ईश्वरको अप्राप्य ही माना गया है।

भारतमें आये अंगरेजोंके सम्मुख निसर्गपूजक, मूर्तिपूजक हिंदु थे और उनकी आराध्य-–आराधनाकी परंपरा थी। तो ग्रीकोंके उदाहरणसे प्रभावित अंग्रेजोंने भारतीय साहित्यको भी मायथोलॉजीका नाम दे दिया और उसे इतिहास माननेसे मना कर दिया। उनकी पूरी शिक्षा प्रणालीमें भारतीय इतिहास एक मनोरंजनात्मक मिथक बनकर रह गया । अंगरेजियतकी उस जमानेकी चकाचौंध हमें आज भी अंधा बनाकर रखनेमें सक्षम है। अतः हमारे इतिहासको मिथक कहनेकी उनकी नादानीका विरोध तो दूर, हमारी शिक्षाप्रणाली आजतक उस वर्णनके लिये अंगरेजोंकी अनुगृहित है।

बीसवीं सदिके उत्तरार्द्धमें हालांकि भारत स्वतंत्र हो चुका था परन्तु शिक्षातंत्रमें वही अंगरेजोंकी बनाई मान्यताएँ कायम थीं। जनमानसमें तो भारतीय इतिहास एक तथ्यके रूपमें स्वीकार्य था परन्तु आधुनिकतावादी शिक्षातंत्रने उसे मायथोलॉजी बना दिया था। अर्थात एक ओर बहुमतवाला जनसामान्य जो गँवार या दकियानुसी कहे जानेपर विरोध नही दर्शाता था परंतु रामायण इत्यादिको प्रत्यक्ष इतिहास मानता था और दूसरी ओर अल्पमतका उच्चशिक्षित वर्ग जिसके लिये तमाम भारतीय परंपराएँ हेय थीं और इतिहास था मायथॉलॉजी । दोनोंके बीच एक संतुलन बना हुआ था ।

तभी अस्सीके दशकमें चकाचौंधका एक नया दौर आरंभ हुआ जो प्रभावशाली अमरीकन अगुवाईमें था । यह नई दुनिय़ाँ थी टेलीव्हिजनसे प्रत्यक्ष चकाचौंध उत्पन्न करनेकी । इस चकाचौंधपर फिलहाल अमरीकनोंका आधिपत्य इस प्रकार बढ रहा है कि अमेजॉन, नेटाफ्लिक्स जैसी बडी कंपनियोंका लगभग एकाधिकार ही इस क्षेत्रपर होनेको है। उनके पास चकाचौंध उत्पन्न करानेलायक पैसे भी हैं और बाहुबल भी और भारतनामक विस्तृत बाजारपर उनकी नजर हो तो क्या आश्चर्य।

इनके साम्राज्यका रॉ मटेरियल है जनमानसमें बसा साहित्य और भारतीय साहित्यके जितना विशाल साहित्यभण्डार और कहाँ मिलेगा? तो उनके प्रॉडक्शनका सोर्सिंगभी भारतीय साहित्यको लेकर संभव है। अडचन केवल एक है-- इस साहित्यके आदर्शपुरुष केवल हीरो नही, वरन उपास्य हैं, आराध्य हैं। उनका देवत्व निकालना पडेगा। परन्तु वर्तमान सदीमें इसके लिये पागान शब्दका उपयोग सर्वथा अनुचित होगा। चाहिये एक नई टर्मिनॉलॉजी । तो इस अडचनको दूर करनेका सरलतम माध्यम है भारतीय शिक्षाप्रणाली जो आज भी अंगरेजियतमें गर्व महसूस करती है । शिक्षाविदोंको यह काम सौंपो कि भारतीय देवताओंको हीरो बनायें, उनकी उपास्यताको निकाल बाहर करें। और ऐसा करनेके लिये चकाचौंध चाहिये हो, तो हम तो बैठे ही हैं।

व्यक्त या अव्यक्त रूपसे, जाने या अनजानेमें यह संदेश भारतकी युनिवर्सिटियोंमे पहुँचा, उन्होने इसे सिर-आँखोपर लगाया। प्रथितयश अमरीकन युनिवर्सिटिय़ोंसे पार्टनरशिपकी चकाचौध भी थी। तो उनके सिलेबसको आदर्श मानकर धडाधड भारतीय युनिवर्सिटियोंने मायथोलॉजी विषयमें क्रँश कोर्सेस खोल लिये हैं – तीन माह या छः माहमें झटपट सर्टिफिकेट देनेवाले। ढोल–नगाडोंके साथ, तमाम युनिवर्सिटियोंमें उत्साहपूर्वक जनसामान्यको भारतीय मायथोलॉजिकल हीरोज परोसे जानेकी तैयारियाँ चरमपर पहुँच चुकी हैं। रुद्र, गणेश, हनुमान, दत्तात्रेय, काली, वैष्णोदेवी इत्यादिको ग्रीक मायथोलॉजी या स्टारवॉर्सकी स्टाइलमें पेश करनेवाला सिलॅबस भी अब मायथोलॉजी कोर्सके इंडियन सेक्शनमें दाखल हो चुका है। भविष्यमें ऐसे कोर्स करनेवालोंके लिये उन चॅनलोंमें पटकथा, मंचनिर्माण आदि नये करियर भी खुलनेवाले हैं, केवल इतना इन हीरोंजकी उपास्यता हटानी होगी । इस अदृष्ट, अकथित नीतिसे अबूझ हमारी युनिवर्सिटियाँ भी अपने सेक्युलॅरिजमपर और सॅनेटाइज्ड हिंदूइजमपर गर्व कर रही हैं।

तो आओ भारतवासियों, देखो अमेझॉन या नेटफ्लिक्स पर, या आपके अपने ही भारतीय चैनेलोंपर – यह देखो हमारा हीरो – रूद्र। कैसा गठीला शूरवीर है, क्या क्या अजूबे करता है, क्या क्या तूफान लाता है। तमाम ग्रीक मिथिकल हीरोजको मात दे सकता है। । सच कहें, तो क्या उत्तम मनोरंजन करता है। और यह लो हमारा दूसरा हीरो गणेश, या यह लो राम । और यह लो हनुमान - यह तो सबसे अधिक मनोरंजक है । या फिर विष्णू । और हीरोइनें भी चाहियें । सो ये पेश हैं - काली, या दुर्गा या लक्ष्मी------
बस इन भारतियोंको बताते रहना कि वे केवल अपने हीरोजकी हीरोपन्ती देखें। इतना स्मरण रख्खें कि उपासना जैसी कोई वस्तु नही होती है, केवल व्यापार होता है। तुम्हारे साहित्यके हीरोजका महत्व उतनाभर ही है।

क्या भारतीय चेतनामें इस संकटको भाँपने और तौलनेका या इससे लडनेका सामर्थ्य है? अबतक हमारी युनिवर्सिटियोंमें केवल लम्बे कोर्सेसके लिये आनेवाले कुछेक छात्र ही इन विषयोंसे संबंधित थे। अब क्रॅश कोर्स और इन्स्टण्ट कोर्सोंका जमाना है । लुभानेवाले, साथही विदेशी युनिवर्सिटियोंकी अफिलिएशन या कृपादृष्टिवाले सर्टिफिकेट पानेका मोह सामान्यजनोंको भी पड जाय तो क्या आश्चर्य ? यह संकट पहलेकी अपेक्षा अधिक गहरा है।

इसीकारण अब समय आ गया है कि हम मिथक और मायथॉलॉजी शब्द भारतीय
डिक्शनरियोंसे निकाल दें और अपने इतिहासको मिथक कहना बंद करें।
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