भारतीय संस्कृति म्हणजे नेमके काय ?

भारतीय संस्कृति म्हणजे नेमके काय ? 
तिची (आतापर्य़ंत टिकलेली) चिरंतनता संपत आहे का ?
आणि किती लौकर नष्ट होणार ? 
तसे होणे म्हणजेच हवीहवीशी आधुनिकता आहे काय? 
भारताचा विकास म्हणजे नेमके काय ?
आज होतांना दिसत असलेला विकास आपल्याला भारतीय संस्कृतिपासून दूर नेत आहे का? असल्यास आपण विकास आणि भारतीय संस्कृति या दोहोंपैकी काय उचलणार ?




















































Ashok Gaikwad … विकासाची व्याख्या नव्याने समजावण्याची वेळ आली आहे. आधुनिक पद्धतीने शेती … म्हणजे विकास ( का ऱ्हास ?)…का जुनी पद्धत (सेंद्रिय) / रासायनिक खतांशिवाय शेतीच बरोबर. जंगले तोडून (तेथल्या वनवासिंना संपवून) शहरे वसविने म्हणजे विकास (?)… आजकाल त्याला 'Land Development' म्हणतात. पश्चिम घाटातील समृद्ध वनराई (flora-fauna) संपवून तेथे औद्योकीकरण करणे म्हणजे विकास याचा विचार व्हायलाच हवा. दुर्दैवाने कुठलाच राजकीय पक्ष / नेता यावर भाष्य करीत नाही. संस्कृती म्हणजे जीवन-शैली. परंपरांचे पालन म्हणजे संस्कृती नव्हे (कदाचित मी चूक असेल). अगदी डोळसपणे … परिणामांचा (संपूर्णपणे सर्वसमावेशकपणे निसर्गावरचा, पर्यावरणावरचा, मानवजातीवरचा, प्राणीमात्रांवरचा ) विचार करून विकासाची व्याख्या निर्धारित केली पाहिजे. आणि अशा विकसनशील जीवन पद्धतीला आपण  सु-संस्कृती म्हणू शकतो. Rationalist Rajendra Gadgil भारतीय संस्कृती म्हणजे नेमके काय याच स्पष्टीकरण आपणच द्याव ,गोळवलकर गुरुजी यांना ,सावरकर यांना ,नेहरूंना ,गांधींना ,आणि सानेगुरुजी यांना जी संस्कृती दिसली भावली ती त्यांनी मांडली आहे ,आपल्याला नेमकी कोणती संस्कृती अभिप्रेत आहे आणि त्यातील कोणते घटक आपल्याला अभिमानाचे वाटतात. आधुनिक याच्या विरोधात आहात कि चंगळवादा च्या विरोधात आहात ? जसे मला भारतीय संस्कृती प्रमाणे आपण वयोपरत्वे नाते लावून बोलवतो .उदा ,ताई ,मावशी ,काकू ,मामी ,आजी इत्यादी ,मी जेंव्हा सौंदर्य स्पर्धेला विरोध करतो तेंव्हा स्त्री अस्मिता तिचे व्यक्तिमत्व या अंगाने विरोध करतो तसेच सौंदर्य स्पर्धेत भाग घेत राहिल्याने पुढे जी अमेरिकन संस्कृती भारतीय स्त्रीला स्वीकारावी लागेल तो धोका लक्षात घेऊन विरोध करतो ,हा विरोध कोणत्या पायावर तर तो भारतीय संस्कृतीच्या पायावर ,कसे तर आपण भारतीय स्त्रीचा सन्मान ठेवताना तिच्या वयाप्रमाणे आदरयुक्त संबोधनाने संपर्क साधतो त्यामुळे सार्वजनिक जागी वावरताना स्त्रीला अधिक सन्मानाने जगता येते ,पण अमेरिकेत स्त्री चा समाजातील स्थान वाया प्रमाणे प्राप्त होत नाही तर त्या दिसतात कश्या रहातात कश्या यावर ठरते ,त्यामुळे त्या फार जागरूक पणे मेकप चे समान सोबत नेतात गाडीत बस मध्ये ९० वर्षाची बाई मेकप करताना दिसेल उलट भारतीय स्त्रीला याचा आधार घ्यावा लागतात नाही उलट जास्त मेकप केला तर आपल्या येथे बाई बिघडली असा संकेत जातो तिला प्रतिष्ठा मिळत नाही ,रस्त्यांनी जाताना जर एखादा उडानटप्पू ग्रुप व्यक्ती काही अर्वाच्य बोलत असेल आणि जरा ५० शी जवळील स्त्री बाजूने जात असतील तर ते गप्प होतात एक मेकांना इशारा करत्तात मावशी ,काकू येत आहेरे ,चुप्प . मग हे जे वयोपरत्वे मिळणारे स्थान आहे ते का गमवावे ही भारतीय संस्कृती का नाकारावी आणि भिकार सौंदर्य स्पर्धेत स्वतःला अडकावे , असो आपली प्रतिक्रिया अपेक्षित 
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Amit Kumar Nema  -- http://athato.blogspot.in/2014/03/1_27.html?spref=fb
भारत को हमेशा से ही उच्च आचरण तथा नैतिक मूल्यों वाला राष्ट्र माना गया है | क्या हमारा समाज, देश तथा स्वयम हम में होने वाला परिवर्तन हमारी इस विचारधारा में परिवर्तन कर रहा है ? क्या हम उच्च मूल्यों की अपनी व्यवस्था को खो रहे हैं या यह मात्र वह चरण है जिससे हमारा देश गुजर रहा है ।  आखिर हम अपने समाज में क्यों ऐंसा होने दे रहे हैं ? इस संक्रमण काल ने कुछ ज्वलंत समस्याओं को जन्म दिया है, यथा  : - 

*  परिवारों का विखण्डन


* कानून और व्यवस्था की कमी

* अपराध और भ्रष्टाचार 

* मदिरापान और बढती हुई नशाखोरी

* महिलाओं, बच्चों तथा समाज के अन्य संवेदनशील सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार 

* संसाधनों का अन्यायपूर्ण प्रयोग व बर्बादी 

* जीवन को हानि तथा जनसंपत्ति को क्षति, और इन्हीं के समान अन्य बहुत ही समस्याएँ जो आज हमारे समाज को विभिन्न स्तरों पर कुप्रभावित कर रही हैं । इन सभी समस्याओं के सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक व राजनैतिक सहित अनेकानेक पहलू हैं । 

     प्राचीन समय से ही भारतीय प्रज्ञा ने एक  सकारात्मक दृष्टिकोण वाले समतामूलक समाज के निर्माण पर जोर दिया है ।   भारतीय ऋषियों-मनीषियों ने व्यक्तिगत शुचिता पर बल दिया है, हम सब यह बात जानते हैं अथवा किसी न किसी रूप में स्वीकार करते हैं कि  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ।   मानव,  समाज की ईकाई होता है जब एकक अच्छा होगा तभी हम समूह के अच्छा होने की बात कर सकते हैं ।  समाज को सुस्थिर एवं सम्पुष्ट बनाने के लिए यह आवश्यक है कि सभी व्यक्ति परस्पर प्रेम भाव से रहें ।  यह भाव तभी उत्पन्न हो सकता है जब मानव समाज में समता मूलक भावना का जन्म हो, समानता का विचार ही प्रेम व मित्रता की नींव है ।  भारतीय संस्कृति के आधारभूत माने गये  " वेदों " तथा उनके अभिन्न अंग " उपनिषदों "  में इस प्रकार के उपदेश दिए गए हैं कि मनुष्य को मित्रता की भावना बढ़ाने के लिए परस्पर किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए ।  स्नेह व मैत्री तब उत्पन्न होता है जब हम एक दूसरे के सुख-दुःख को अनुभव कर सकें ।  इस समत्व  पर देखिये किस प्रकार प्रकाश डाला गया है :

वैदिक वांग्मय अंश (पांडुलिपि )

                                               समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। 
                                           समानमस्तु वो मनोः यथा वः सुसहासति।। ( ऋग्वेद 10.191.4 )
 व्याख्या : यहां यह संदेश दिया गया है कि तुम सब का एक जैसा संकल्प हो, एक जैसा निश्चय हो। तुम सब के हृदय एक जैसे हों। तुम सब का मन एक जैसा हो जिससे तुम आसानी से संगठित हो सको। मैत्री भाव तभी बढ़ सकता है जब सब का मन एक जैसा हो। एक दूसरे के सुख दुख का अनुभव कर सकें। तभी हम आपस में बंधुभाव  को बढ़ा सकते हैं।
      जैसा कि हमने पूर्व में जाना कि मूल्य वे विचार व धारणाएँ हैं जिन्हें हम विशेष रूप से धारित करते हैं और एक कठिन परिस्थिति में हम जिस प्रकार व्यवहार करते हैं उनसे ही हमारे मूल्यों की पहचान होती है ।  यह धारणाएँ एक व्यक्ति अपने परिवार से ही सीखता है, इसलिये जीवन में आदर्श व सकारात्मक मूल्यों की पैदाइश के लिये आवश्यक है कि परिवार में एक सौहार्दपूर्ण वातावरण हो , हमारी संस्कृति में परिवार का सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है और नि:संदेह पारिवारिक वातावरण किसी के जीवन विकास में एक अहम कारक है, इसलिये मैत्रीभाव सबसे पहले परिवार में ही होना चाहिये : 
                                            
                                               अनुव्रत: पितु पुत्रो मात्रा भवतु संमना : । 
                                               जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम ॥ 

                                               मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुत स्वसा। 
                                               सम्यन्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।। ( अथर्व. 3.30.2-3 )
व्याख्या : पुत्र अपने पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और अपनी माता के साथ समान विचार से रहने वाला हो पत्नी अपने पति से मधुरता तथा सुख से युक्त वाणी बोले ( 2 ), भाई अपने भाई से विद्वेष न करें और बहिन अपनी बहिन से विद्वेष न करें, वे सब एक विचार वाले तथा एक कर्म वाले होकर परस्पर कल्याणकारी वार्तालाप करें | ( 3 )  
     मैत्री  भाव पहले परिवार में होना चाहिए। परिवार के लोग परस्पर प्रेम से रहें, बड़े छोटों पर स्नेह रखें और छोटे बड़ों का आदर करें। भाई-भाई परस्पर प्रेम से रहें। एक भाई दूसरे भाई से द्वेष न करे। बहनें भी परस्पर प्रेम से रहें वे भी परस्पर द्वेष न करें। बहनें विवाह के पश्चात् अलग परिवारों में अलग-अलग स्थानों पर चली जाती हैं। उनकी पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति अलग-अलग अच्छी, सामान्य या दुर्बल हो जाती है। बहनों को एक दूसरे से द्वेष न कर परस्पर प्रेम रखना चाहिए और आवश्यकता के अनुसार एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए। सभी का मत एक समान हो। परिवार में सभी का मत सदा एक समान नहीं होता। 
सब को अपना मत प्रकट करने का अधिकार है परंतु अन्त में जो मत ठीक हो वह सभी को मानना चाहिए। अब कौन सा मत ठीक है इसका निर्णय परिवार के मुखिया या बड़े लोगों द्वारा किया जाता है और परिवार के अन्य लोगों का यह कर्तव्य  हो जाता है कि उस मत को स्वीकार कर उसका पालन करें। परिवार में ‘‘एक ने कही दूसरे ने मानी’’ की भावना से कार्य करने पर पारिवारिक सौमनस्य तथा मैत्री भाव बना रहता है और परिवार में सुख-समृद्धि  की बढ़ोतरी होती है। 


     परिवार के सभी लोग जब एक मत वाले हो जाएंगे तो वे सारे समान संकल्प वाले होकर एक जैसा ही कार्य करेंगे। सभी समान कार्य करेंगे अर्थात् परिवार का कोई भी सदस्य ऐसा कोई भी कार्य न करे जो दूसरे के कार्य के विपरीत हो या परिवार के दूसरे सदस्यों को हानि पहुंचाने वाला हो।  परिवार में एक दूसरे को अच्छी लगने वाली बातें बोलना बहुत हितकारी होता है। इसलिए वेद का आदेशहै कि परिवार के सारे सदस्य-भाई बहन कल्याणकारी-हितकारी और अच्छी लगने वाली वाणी बोलें। वस्तुतः संसार के सभी लोग तो भाई बहन ही हैं सबके साथ ही उत्तम और हितकारी वाणी ही बोलनी चाहिए।

     चलते चलते आपको बता दें ,  भारतीय चिन्तन का ग्रन्थ रूप सबसे पहले वेदों में मिलता है। ऋग्वेद  विश्व का सबसे पहला ग्रंथ है। वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद्,  यह वैदिक साहित्य हैं। वेद चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।  ऋग्वेद में इन्द्र, अग्नि, विष्णु, मित्रा और वरुण जैसे देवताओं की स्तुतियाँ हैं, और कई दार्शनिक तथा सामाजिक चिन्तन हैं।यजुर्वेद में यज्ञ करने तथा अन्य यज्ञ संबंधी विषयों पर विचार है। सामवेद गायन विद्या का आधार  है। ऋग्वेद की ऋचाओं को साम के रूप में सामवेद में प्रस्तुत किया गया है। अथर्ववेद में सामाजिक, राजनैतिक, रोगनिवारक आदि विविध् मन्त्र हैं। 

     जब पाती लिखने का विचार किया था तो सम्पूर्ण विषय वस्तु को एक ही बार में प्रस्तुत करने का विचार था , किन्तु विषय सम-सामयिक समस्याओं के प्राचीन समाधान पर होने के कारण ग्राह्यता को ध्यान में रखते हुये अब एकाधिक खंडों में प्रस्तुत करूंगा | तब तक के लिये आज्ञा दीजिये , सादर प्रणाम...........  

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