रामजन्मभूमिके लिये हुतात्मा हुए वीरोंका पुण्यस्मरण

जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय रामजन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामानन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी। महात्मा श्यामानन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये । 
महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम
भी महात्मा श्यामानन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा।

ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामानन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा।

जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य स्थापित करना। अत: जलाल शाह ने अपने काफिर गुरु की पीठ में छुरा घोंपकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया कि यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे -धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने
की तैयारियों में जुट गये।

सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिये जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया और मीर बाकी खां के माध्यम से बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया।

बाबा श्यामानन्दजी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख कर बहुत दुःखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ।

दुःखी मन से बाबा श्यामानन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में.प्रवाहित किया और खुद हिमालय की ओर तपस्या करने चले गये।

 मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिये और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिये खड़े हो गये।

 जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारों पुजारियों के सर काट लिये गये। जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय भीटी के राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिये निकले थे। अयोध्या पहुँचने पर रास्ते में उन्हें यह खबर.मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर १ लाख चौहत्तर हजार लोगों के साथ बाबर की सेना के ४ लाख ५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।

रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूँद तक लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने
देंगे।

रामभक्त वीरता के साथ लड़े। ७० दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत सभी १
लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गये।

श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण कत्ले आम के बाद मीर बाकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया ।

 मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण हुआ। पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया नींव में लखौरी ईंटों के साथ ।

इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है कि एक लाख चौहतर हजार
हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात् मीर बाकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान में सफल हुआ और उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवा कर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया।

इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में लिखता है कि "जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना कर लखौरी ईटों की नींव मस्जिद बनवाने के लिये दी गयी थी। उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गाँव के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहाँ के आस-पास के गाँवों सराय, सिसिंडा, राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया।

 देवीदीन पाण्डेय ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से कहा, "भाइयों ! आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते हैं। आप के पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते- करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥"

देवीदीन पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गये । दूर- दूर के गाँवों से लोग समूहों में इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर जबरदस्त धावा बोल दिया ।

शाही सेना से लगातार ५ दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन मीर बाकी का सामना देवीदीन पाण्डेय से हुआ। उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया।

 मगर उस वीर ने अपने पगड़ी से खोपड़ी को बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया।

इसी बीच मीर बाकी ने छिपकर गोली चलायी जो पहले.ही से घायल देवीदीन पाण्डेय जी को लगी और वे जन्मभूमि की रक्षा में वीरगति को प्राप्त हुए।

जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। देवीदीन पाण्डेय के वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर अब भी मौजूद है।

पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ मीर बाकी की विशाल और शस्त्रों से सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिये आक्रमण किया ।

 10 दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गये। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा।

रानी जयराज कुमारी हंसवर के स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह की पत्नी थी।

जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया और हुमायूँ के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा।

रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज कुमारी की सहायता की। साथ ही स्वामी महेश्वरानंद जी ने संन्यासियों की सेना बनायी। इसमें उन्होंने २४.हजार संन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के साथ , हुमायूँ के समय में कुल १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के लिये किये।

 १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार हो गया।

लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से शाही सेना फिर भेजी । इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ मारे गये और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया।

 श्रीरामजन्मभूमि एक बार फिर कुल 24 हजार संन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी।

रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद युद्ध का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गाँव-गाँव.में घूम कर रामभक्त हिन्दू युवकों और संन्यासियों की एक मजबूत सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये।

 इन २० हमलों में कम से कम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया । मगर यह अधिकार अल्प समय के लिये रहता था। थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन हो जाती थी। जन्मभूमि में लाखों हिन्दू बलिदान होते रहे। उस समय का मुग़ल शासक अकबर था।

शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी। अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस
की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया।

लगातार युद्ध करते रहने के कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु.हो गयी।

इस प्रकार बार-बार के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष एवं हिन्दुस्थान पर.मुगलों की ढीली होती पकड़
से बचने का एक राजनैतिक प्रयास।अकबर की इस कूटनीति से कुछ दिनों के लिये जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा।

यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा। फिर औरंगजेब के हाथ सत्ता आई । वह कट्टर मुसलमान था और
उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था।

 उसने लगभग 10 बार अयोध्या में मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला।

औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज के शिष्य श्री वैष्णवदासजी ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों में अयोध्या के आस- पास के गाँवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमेंं सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे।

 ये सारे वीर यह जानते हुए भी कि उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है, अपने जीवन के आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिये हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।

ठाकुर गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के वंशज आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय सिर पर पगड़ी नहीं बाँधते, जूता नहीं पहनते, छाता नहीं लगाते। उन्होंने अपने पूर्वजों के सामने यह प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक जूता नहीं पहनेंगे, छाता नहीं लगायेंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे।

1640 ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिये जाबाँज खाँ के नेतृत्व में एक जबरदस्त सेना भेज दी थी। बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक सेना थी जो हर विद्या में निपुण थी। इसे चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे ।

 जब जन्मभूमि पर जाबाँज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाँज़ खाँ की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध किया । चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित मंदिर की रक्षा हो गयी ।

 जाँबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ अयोध्या की ओर
भेजा और साथ में यह आदेश दिया कि अबकी बार जन्मभूमि को बर्बाद करके वापस आना है। यह समय सन्
1680 का था ।

 बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिये पत्र द्वारा संदेश भेजा । पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत तत्काल अयोध्या आ गये और ब्रह्मकुंड पर अपना डेरा डाला । ब्रह्मकुंड वही जगह है जहाँ आजकल गुरुगोविंद सिंह की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है।

बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के गुरुगोविंद सिंह रामलला की रक्षा हेतु एक साथ रणभूमि में कूद पड़े ।

इन वीरों कें सुनियोजित हमलों से मुगलों की सेना के पाँव उखड़ गये ।सैय्यद हसन अली भी युद्ध मे मारा गया।

औरंगजेब हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4 साल तक उसने अयोध्या पर हमला करने की हिम्मत नहीं की। औरंगजेब ने सन् 1664 में एक बार फिर श्री राम जन्मभूमि पर आक्रमण किया । इस भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं की हत्या कर दी। नागरिकों तक को नहीं छोड़ा।

 जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप नाम का कुआँ था। सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने उसमें फेंककर चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर दिया।

आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध है, और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है।

शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत दिनों तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था ।

 औरंगजेब के क्रूर अत्याचारों की मारी हिन्दू जनता अब उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत, पुष्प और जल चढ़ाती रहती थी।

 नबाब सहादत अली के समय 1763 में जन्मभूमि के रक्षार्थ अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के
राजकुमार सिंह के नेतृत्व में बाबरी ढाँचे पर पुनः पाँच आक्रमण किये गये जिसमें हर बार हिन्दुओं की लाशें
अयोध्या में गिरती रहीं।

 लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट.लिखता है कि...

“ लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान होने के नाते उसने काफिरों को जमीन नहीं सौंपी।
(लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62)

नासिरुद्दीन हैदर के समय में मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के लिये हिंदुओं के तीन आक्रमण हुए जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये। परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर  नबाबी सेना का सामना हुआ । 8वें दिन हिंदुओं की शक्ति क्षीण होने लगी । जन्मभूमि के मैदान में हिन्दुओं और मुसलमानों की लाशों का ढेर लग गया ।

 इस संग्राम मे भीती, हंसवर, मकरही, खजुरहट, दीयरा अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। हारती हुई
हिन्दू सेना के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना आ मिली और इस युद्ध में शाही सेना के चिथड़े उड़ गये और उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया।

मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद विशाल शाही सेना ने पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और
हजारों हिन्दुओं को मार डाला गया।  जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त प्रवाहित होने लगा। नवाब वाजिदअली शाह के समय के समय में पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ आक्रमण किया ।

 फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा...
"इस संग्राम में बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ। दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं नें रामजन्मभूमि पर कब्जा कर लिया।

 क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने कब्रें तोड़फोड़ कर बर्बाद कर डालीं। मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया। 
मगर हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुँचाई। अयोध्या में प्रलय मचा हुआ था ।

इतिहासकार कनिंघम लिखता है कि यह अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू- मुस्लिम बलवा था।

हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किये गये चबूतरे को फिर वापस बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक छोटा सा मंदिर बनवा लिया जिसमें पुनः रामलला की स्थापना की गयी।

कुछ जेहादी मुल्लाओं को यह बात स्वीकार नहीं हुई और कालांतर में जन्मभूमि फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल
गयी।

सन् 1857 की क्रांति मे बहादुरशाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ
जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया पर 18 मार्च  1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ में दोनों को एक साथ अंग्रेज़ों ने फाँसी पर लटका दिया ।

जब अंग्रेज़ों ने यह देखा कि यह पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिये एक स्मारक के रूप में विकसित हो रहा है तब उन्होंने इस पेड़ को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया...

इस प्रकार अंग्रेज़ों की कुटिल नीति के कारण रामजन्मभूमि के उद्धार का यह एकमात्र प्रयास विफल हो गया ...

 अन्तिम बलिदान ...
३० अक्टूबर १९९० को हजारों रामभक्तों ने वोट बैंक के लालची मुलायम सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गईं अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढाँचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया।

लेकिन २ नवम्बर १९९० को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियाँ दीं। 

सरकार ने मृतकों की असली संख्या छिपायी परन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था।

 ४ अप्रैल १९९१ को कारसेवकों के हत्यारे, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस्तीफा दिया।

लाखों राम भक्त ६ दिसम्बर को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंँचे और राम जन्मस्थान पर बाबर के सेनापति द्वार बनाये गये अपमान के प्रतीक मस्जिदनुमा ढाँचे को ध्वस्त कर दिया।

Comments

Popular posts from this blog

मी केलेले अनुवाद -- My Translations

शासकीय कर्मचा-यांच्या नियतकालीक बदल्या- मार्गदर्शक तत्वे

एक शहर मेले त्याची गोष्ट