स्वाइन फ्लू और सरहद
स्वाइन फ्लू और सरहद
मुंबई नामा-1
-लीना मेहेंदले
(देशबन्धु ऑन लाइन न्यूज पोर्टल Thursday , Sep 17,2009, 08:48:33 PM)
अगस्त का महीना मुंबईवासियों के लिए खासे तनाव का रहा। मैं छुट्टियां बिताने बेटे के पास अमरीका गई थी कि मुझे फोन आया स्वाईन फ्लू से बचिए। पूछने पर पता चला कि अमरीका में खासकर मेक्सिको से जुड़े प्रांतों में स्वाइन फ्लू का संसर्ग रोग फैला हुआ है और अमरीका से भारत आने वाले लोगों की बदौलत यहां भी फैल रहा है। मैंने सलाहकर्ता को धन्यवाद दिया और अपने कुछ खास प्रतिरोधक उपाय कर लिए। 7 अगस्त को लौटी तो एअरपोर्ट पर देखा -करीब चालीस डॉक्टरों की फौज डयूटी बजा रही थी- हर आगमित प्रवासी से सर्टिफिकेट लिया जा रहा था कि उसे फ्लू के लक्षण नहीं हैं। जिन्हें थोड़ी बहुत तकलीफ थी उनके लिए तत्काल टेस्टिंग की व्यवस्था भी थी। उस दिन तक मुंबई-पुणे के इलाके में स्वाइन फ्लू से कोई मौत की घटना नहीं घटी थी। 11 अगस्त को पुणे की एक महिला का दु:खद निधन हुआ जो कि पहला हादसा था। तब से एक-एक कर कुछ और भी दुघटनाएं हुर्इं और महज पंद्रह दिनों में देशभर में स्वाईन फ्लू से मरने वालों की संख्या पचास से ऊपर पहुंच गई।
मुंबई में जो तनाव रहा, वह इसी कारण। इस तनाव में मैंने कुछ बातें नोट कीं। सबसे खास बात थी हमारी स्वास्थ्य नीति से संबंधित। मैंने देखा कि फ्लू के लक्षणों का ऐलोपैथी तरीके से परीक्षण कर स्वाइन फ्लू का निष्कर्ष निकलने तक तीन दिन लग जाते हैं। तब तक टॅमी फ्लू की गोली न लेने की सलाह डॉक्टर दे रहे थे। वजह बताई जा रही थी कि निरोगी व्यक्ति में अनावश्यक टैमीफ्लू लेने से कई खतरनाक दुष्परिणाम है। उन दिनों टैमीफ्लू गोलियों का स्टॉक भी नहीं था। जैसे ही स्टॉक बढ़ा- तुरंत सरकारी घोषणा हो गई कि अब लैबोरेटरी के निष्कर्ष तक रूको मत- जिसे लक्षण दिखे उसे टॅमीफ्लू दे दो।
उधर मीडिया हाइप भी कुछ इस प्रकार था कि हडकंप मच जाए। यह पूरा खेल टॅमीफ्लू दवाई बेचने का था? क्योंकि इन्हीं पंद्रह दिनों के दौरान हमारी सरकार ने टॅमीफ्लू की कई लाख गोलियां खरीदकर देशभर के अस्पतालों और डॉक्टरों को मुहैय्या करवार्इं।
मन्तव्य है कि जिस बक्स्टर कंपनी ने यह दवाई बनाई है उसकी बाबत स्वयं डब्लूएचओ ने कहा कि इस दवाई के अभी तक वे परीक्षण पूरे नहीं हुए हैं जो कि डब्ल्यूएचओ के मानदण्ड माने जाते हैं लेकिन डब्ल्यूएचओ को उम्मीद है कि बक्स्टर कंपनी ने अपने लेबल पर जो परीक्षण किए वे प्रोफेशनल ईमानदारी से किए होंगे। अत: डब्ल्यूएचओ के अपने परीक्षण न होने के बावजूद इस दवाई से कोई खतरा नहीं होगा।
उधर कंपनी ने मेक्सिको के स्वाईनफ्लू के लिए बडे पैमाने पर गोलियों का उत्पादन किया होगा और मेक्सिको में तो वह बीमारी काबू में आ गई। फिर गोलियां कहां बेंचे?
बहरहाल, कंपनी और डब्ल्यूएचओ की नीतियों को छोडें अौर अपनी सरकारी नीतियों को देखें। सरकारी नीति यह है कि स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य सचिव को देश की डॉक्टरी क्षमता की पूरी खबर है। उन्हें पता है कि देश में इतने डॉक्टर्स हैं, इतने सरकारी अस्पताल, इतने प्राइवेट अस्पताल, इतनी टेस्टिंग लैंब्स। यह हुआ हार्डवेअर। सॉफ्टवेअर का भी पता है- मसलन, टेस्टिंग में इतने दिन लगते हैं, स्वाईन फ्लू की डब्ल्यूएचओ सर्टिफाइड दवा नहीं निकली है, टॅमीफ्लू का शाटर्ेज है, फ्लू के लिए कोई एलोपैथी दवा असर नहीं करती- बस!
जो उन्हें नहीं पता और न वे जानना चाहते हैं कि अपनी इस इंडिया में एक भारत भी है इंडियन गव्हर्नमेंट का स्वास्थ्य विभाग है, पर भारत सरकार के पास कोई स्वास्थ्य विभाग नहीं है- केवल आयुष नामक विभाग है। जहां से आयुर्वेदिक या होमियोपैथी या योग, यूनानी इत्यादि द्वारा इलाज बताया जाता है। इन सभी पैथियों का पहला नुस्खा है कि रोग होने की नौबत ही न आने दो-पथ्य विचार करो और प्रिवेन्टिव तरीके अपनाओ। तुलसी, काली मिर्च, सौंठ आदि का काढ़ा लेने पर फ्लू में प्रिवेन्शन अर्थात् रोग आने से पहले और रोग आने के बाद भी फायदा होता है। उसी प्रकार होमियोपैथी में फ्लू के लिए नॅट्रम मूर और नेट्रम सल्फ का मिश्रण (बायोकेमिक दवा) और कई अन्य होमियोपैथिक दवाइयां हैं। प्राणायाम करते रहो तो भी फ्लू से बचाव हो जाना है। लेकिन भारतीयों के आयुष विभाग के सचिव को इंडियनों के स्वास्थ्य संबंधी कुछ भी सलाह देने का या इंडिया गवर्नमेंट की स्वास्थ्य नीति में शामिल होने का हक नहीं है। इसीलिए महाराष्ट्र में भी हालांकि एक ही सचिव के पास आयुष विभाग भी है और मेडिकल कॉलेजेस और उनसे जुडे सभी बड़े अस्पतालों का मैनेजमेंट भी।
फिर भी आयुष विभाग का कोई रोल नहीं है। सूचना प्रसारण विभाग के इश्तहार केवल इतना बताते हैं- ''डरें नहीं, इलाज कराएं। हेल्प लाइन पर संपर्क करें।'' लेकिन आयुष के सिद्धांतों में समाहित प्रिवेन्शन के तरीके की कोई बात ही नहीं करता।
हाँ, सरकार की सोच पहले कुछ दिनों तक यह रही की प्रिवेन्शन के लिए भीड़भाड़ को रोका जाए। पुणे में स्कूल बंद हुए तो हरेक शहर में स्कूल बंद करने की मांग हुई। लेकिन मुंबई में रोजाना लोकल से लाखों लोग भारी भीड़ को झेलते हुए सफर करते हैं। दूर-दूर से अपने काम के लिए दफ्तर पहुंचते हैं, उन्हें कैसे कहा जाए कि भीड़ से बचो?
इसी बीच जन्माष्टमी का त्योहार आया। मुंबई में दहीहाण्डी की प्रथा खासियत रखती है। ऊंचाई पर टंगी दही हण्डी फोड़ने के लिए नौजवानों की टोलियां घूमती हैं और एक पर एक चढ़कर ऊंचाई तक पहुंचने का प्रयास करती हैं। उनकी इनाम राशि में करोड़ों का लेनदेन होता है। दर्शकों की भीड़ भी हजारों की होती है। उनसे कहा गया भीड़ मत करो, दहीहाण्डी का उत्सव मत करो।
लोगों ने धैर्य दिखाया और दही हाण्डी का उत्सव नहीं के बराबर रहा। जाहिर है कि करोड़ों का लेनदेन खटाई में गया- अगला गणेशोत्सव सर पर था-उसमें कई हजार करोड़ का लेनदेन होता है। क्या वह भी खटाई में जायगा? इस प्रश्न पर मानसिकता बदली। लोगों ने स्वाइन फ्लू को धता बताते हुए गणेशोत्सव की तैयारी की। अब मीडिया भी पलटी। ''स्वाईन फ्लू का कहर बरपा'' के हेड लाइन की जगह ''लोगों ने धैर्य का परिचय दिया।'' की स्ट्रिप न्यूज शुरू हुई।
सरकारी रवैये में एक और बात देखने को मिली। लोग मास्क पहन रहे थे, टेस्टिंग के लिए अस्पताल में लाइन लगा रहे थे, परेशान हो रहे थे, अस्पतालों में इतने घबराए लोगों को एक साथ झेलने की क्षमता भी नहीं थी लेकिन सरकार की ओर से कुछ नहीं कहा गया। जब प्रधानमंत्री ने स्वयं रिव्यू करने की घोषणा की तब केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री टीवी पर आकर बोलने लगे- तब मुख्यमंत्री, फिर आरोग्य सचिव, फिर निदेशक, फिर सरकारी अस्पतालों के डीन और पीएसएम (प्रिवेन्टिव सोशल मेडिसिन) के डीन बोले। मुझे लगा कि अच्छे लोकतंत्र में इसका उलटा होना चाहिए था और प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिए थी।
इसी दौरान एक परेशान करनेवाला टीवी कार्यक्रम देखा-इकलौता। दिल्ली की किसी राष्ट्रीय सुरक्षा शोध संस्था के निदेशक बता रहे थे कि किस तरह चीन अपनी सैनिक क्षमता तेजी से बढ़ा रहा है और तुलना में भारत की तैयारी कितनी कम है। हो न हो कहीं चीन युध्द की तैयारी न कर रहा हो। ऐसे समय में हमारा पूरा ध्यान क्या स्वाइन फ्लू में ही अटका रहेगा, जिसके प्रिवेन्टिव इलाज के प्रति और आयुर्वेदाही इलाजों के प्रति कोई लोक जागरण नहीं है। राजकीय चर्चा चलती रहती है कि मुख्यमंत्री को खुद मास्क लगाकर मिसाल कायम करनी चाहिए या नहीं।
खैर, गणेशोत्सव में लाखों की भीड़ ने बता दिया कि स्वाइन फ्लू कोई महामारी वाला खतरा नहीं है। हां, इतना अवश्य है कि साधारण फ्लू में मरने का खतरा नहीं है। स्वाइन फ्लू में वक्त रहते इलाज न करने पर खतरा है। अब टॅमीफ्लू की कई लाख गोलियां भी आयात हो चुकी हैं, निजी अस्पतालों में भी बांटी गई हैं कि खतरा लगे, तो गटक जाओ। टेस्टिंग की हरेक किट का खर्च होता है करीब दस हजार- वह भी एक टेस्ट का। ऐसे हजारों किट भी आयात हो चुके हैं। हमारी आईसीएमआर या हाफकिन जैसी संस्थाएं अपने शोधकार्य के बलबूते पर ऐसा किट बना सकने की क्षमता क्यों नहीं रखतीं -यह चर्चा अगले दस वर्षो में कभी किसी सेमिनार में हो जाएगी। ऐसे मौके पर हम तुलसी काढा, प्राणायाम, नेट्रम सल्फ आदि की बात या प्रयोग (एक्सपेरीमेंट और ऍप्लीकेशन दोनों अर्थों में) क्यों नहीं करते, यह सवाल कभी नहीं उठेगा क्योंकि यह इंडिया व्हर्सेस भारत का झगड़ा है।
मुंबई नामा-1
-लीना मेहेंदले
(देशबन्धु ऑन लाइन न्यूज पोर्टल Thursday , Sep 17,2009, 08:48:33 PM)
अगस्त का महीना मुंबईवासियों के लिए खासे तनाव का रहा। मैं छुट्टियां बिताने बेटे के पास अमरीका गई थी कि मुझे फोन आया स्वाईन फ्लू से बचिए। पूछने पर पता चला कि अमरीका में खासकर मेक्सिको से जुड़े प्रांतों में स्वाइन फ्लू का संसर्ग रोग फैला हुआ है और अमरीका से भारत आने वाले लोगों की बदौलत यहां भी फैल रहा है। मैंने सलाहकर्ता को धन्यवाद दिया और अपने कुछ खास प्रतिरोधक उपाय कर लिए। 7 अगस्त को लौटी तो एअरपोर्ट पर देखा -करीब चालीस डॉक्टरों की फौज डयूटी बजा रही थी- हर आगमित प्रवासी से सर्टिफिकेट लिया जा रहा था कि उसे फ्लू के लक्षण नहीं हैं। जिन्हें थोड़ी बहुत तकलीफ थी उनके लिए तत्काल टेस्टिंग की व्यवस्था भी थी। उस दिन तक मुंबई-पुणे के इलाके में स्वाइन फ्लू से कोई मौत की घटना नहीं घटी थी। 11 अगस्त को पुणे की एक महिला का दु:खद निधन हुआ जो कि पहला हादसा था। तब से एक-एक कर कुछ और भी दुघटनाएं हुर्इं और महज पंद्रह दिनों में देशभर में स्वाईन फ्लू से मरने वालों की संख्या पचास से ऊपर पहुंच गई।
मुंबई में जो तनाव रहा, वह इसी कारण। इस तनाव में मैंने कुछ बातें नोट कीं। सबसे खास बात थी हमारी स्वास्थ्य नीति से संबंधित। मैंने देखा कि फ्लू के लक्षणों का ऐलोपैथी तरीके से परीक्षण कर स्वाइन फ्लू का निष्कर्ष निकलने तक तीन दिन लग जाते हैं। तब तक टॅमी फ्लू की गोली न लेने की सलाह डॉक्टर दे रहे थे। वजह बताई जा रही थी कि निरोगी व्यक्ति में अनावश्यक टैमीफ्लू लेने से कई खतरनाक दुष्परिणाम है। उन दिनों टैमीफ्लू गोलियों का स्टॉक भी नहीं था। जैसे ही स्टॉक बढ़ा- तुरंत सरकारी घोषणा हो गई कि अब लैबोरेटरी के निष्कर्ष तक रूको मत- जिसे लक्षण दिखे उसे टॅमीफ्लू दे दो।
उधर मीडिया हाइप भी कुछ इस प्रकार था कि हडकंप मच जाए। यह पूरा खेल टॅमीफ्लू दवाई बेचने का था? क्योंकि इन्हीं पंद्रह दिनों के दौरान हमारी सरकार ने टॅमीफ्लू की कई लाख गोलियां खरीदकर देशभर के अस्पतालों और डॉक्टरों को मुहैय्या करवार्इं।
मन्तव्य है कि जिस बक्स्टर कंपनी ने यह दवाई बनाई है उसकी बाबत स्वयं डब्लूएचओ ने कहा कि इस दवाई के अभी तक वे परीक्षण पूरे नहीं हुए हैं जो कि डब्ल्यूएचओ के मानदण्ड माने जाते हैं लेकिन डब्ल्यूएचओ को उम्मीद है कि बक्स्टर कंपनी ने अपने लेबल पर जो परीक्षण किए वे प्रोफेशनल ईमानदारी से किए होंगे। अत: डब्ल्यूएचओ के अपने परीक्षण न होने के बावजूद इस दवाई से कोई खतरा नहीं होगा।
उधर कंपनी ने मेक्सिको के स्वाईनफ्लू के लिए बडे पैमाने पर गोलियों का उत्पादन किया होगा और मेक्सिको में तो वह बीमारी काबू में आ गई। फिर गोलियां कहां बेंचे?
बहरहाल, कंपनी और डब्ल्यूएचओ की नीतियों को छोडें अौर अपनी सरकारी नीतियों को देखें। सरकारी नीति यह है कि स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य सचिव को देश की डॉक्टरी क्षमता की पूरी खबर है। उन्हें पता है कि देश में इतने डॉक्टर्स हैं, इतने सरकारी अस्पताल, इतने प्राइवेट अस्पताल, इतनी टेस्टिंग लैंब्स। यह हुआ हार्डवेअर। सॉफ्टवेअर का भी पता है- मसलन, टेस्टिंग में इतने दिन लगते हैं, स्वाईन फ्लू की डब्ल्यूएचओ सर्टिफाइड दवा नहीं निकली है, टॅमीफ्लू का शाटर्ेज है, फ्लू के लिए कोई एलोपैथी दवा असर नहीं करती- बस!
जो उन्हें नहीं पता और न वे जानना चाहते हैं कि अपनी इस इंडिया में एक भारत भी है इंडियन गव्हर्नमेंट का स्वास्थ्य विभाग है, पर भारत सरकार के पास कोई स्वास्थ्य विभाग नहीं है- केवल आयुष नामक विभाग है। जहां से आयुर्वेदिक या होमियोपैथी या योग, यूनानी इत्यादि द्वारा इलाज बताया जाता है। इन सभी पैथियों का पहला नुस्खा है कि रोग होने की नौबत ही न आने दो-पथ्य विचार करो और प्रिवेन्टिव तरीके अपनाओ। तुलसी, काली मिर्च, सौंठ आदि का काढ़ा लेने पर फ्लू में प्रिवेन्शन अर्थात् रोग आने से पहले और रोग आने के बाद भी फायदा होता है। उसी प्रकार होमियोपैथी में फ्लू के लिए नॅट्रम मूर और नेट्रम सल्फ का मिश्रण (बायोकेमिक दवा) और कई अन्य होमियोपैथिक दवाइयां हैं। प्राणायाम करते रहो तो भी फ्लू से बचाव हो जाना है। लेकिन भारतीयों के आयुष विभाग के सचिव को इंडियनों के स्वास्थ्य संबंधी कुछ भी सलाह देने का या इंडिया गवर्नमेंट की स्वास्थ्य नीति में शामिल होने का हक नहीं है। इसीलिए महाराष्ट्र में भी हालांकि एक ही सचिव के पास आयुष विभाग भी है और मेडिकल कॉलेजेस और उनसे जुडे सभी बड़े अस्पतालों का मैनेजमेंट भी।
फिर भी आयुष विभाग का कोई रोल नहीं है। सूचना प्रसारण विभाग के इश्तहार केवल इतना बताते हैं- ''डरें नहीं, इलाज कराएं। हेल्प लाइन पर संपर्क करें।'' लेकिन आयुष के सिद्धांतों में समाहित प्रिवेन्शन के तरीके की कोई बात ही नहीं करता।
हाँ, सरकार की सोच पहले कुछ दिनों तक यह रही की प्रिवेन्शन के लिए भीड़भाड़ को रोका जाए। पुणे में स्कूल बंद हुए तो हरेक शहर में स्कूल बंद करने की मांग हुई। लेकिन मुंबई में रोजाना लोकल से लाखों लोग भारी भीड़ को झेलते हुए सफर करते हैं। दूर-दूर से अपने काम के लिए दफ्तर पहुंचते हैं, उन्हें कैसे कहा जाए कि भीड़ से बचो?
इसी बीच जन्माष्टमी का त्योहार आया। मुंबई में दहीहाण्डी की प्रथा खासियत रखती है। ऊंचाई पर टंगी दही हण्डी फोड़ने के लिए नौजवानों की टोलियां घूमती हैं और एक पर एक चढ़कर ऊंचाई तक पहुंचने का प्रयास करती हैं। उनकी इनाम राशि में करोड़ों का लेनदेन होता है। दर्शकों की भीड़ भी हजारों की होती है। उनसे कहा गया भीड़ मत करो, दहीहाण्डी का उत्सव मत करो।
लोगों ने धैर्य दिखाया और दही हाण्डी का उत्सव नहीं के बराबर रहा। जाहिर है कि करोड़ों का लेनदेन खटाई में गया- अगला गणेशोत्सव सर पर था-उसमें कई हजार करोड़ का लेनदेन होता है। क्या वह भी खटाई में जायगा? इस प्रश्न पर मानसिकता बदली। लोगों ने स्वाइन फ्लू को धता बताते हुए गणेशोत्सव की तैयारी की। अब मीडिया भी पलटी। ''स्वाईन फ्लू का कहर बरपा'' के हेड लाइन की जगह ''लोगों ने धैर्य का परिचय दिया।'' की स्ट्रिप न्यूज शुरू हुई।
सरकारी रवैये में एक और बात देखने को मिली। लोग मास्क पहन रहे थे, टेस्टिंग के लिए अस्पताल में लाइन लगा रहे थे, परेशान हो रहे थे, अस्पतालों में इतने घबराए लोगों को एक साथ झेलने की क्षमता भी नहीं थी लेकिन सरकार की ओर से कुछ नहीं कहा गया। जब प्रधानमंत्री ने स्वयं रिव्यू करने की घोषणा की तब केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री टीवी पर आकर बोलने लगे- तब मुख्यमंत्री, फिर आरोग्य सचिव, फिर निदेशक, फिर सरकारी अस्पतालों के डीन और पीएसएम (प्रिवेन्टिव सोशल मेडिसिन) के डीन बोले। मुझे लगा कि अच्छे लोकतंत्र में इसका उलटा होना चाहिए था और प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिए थी।
इसी दौरान एक परेशान करनेवाला टीवी कार्यक्रम देखा-इकलौता। दिल्ली की किसी राष्ट्रीय सुरक्षा शोध संस्था के निदेशक बता रहे थे कि किस तरह चीन अपनी सैनिक क्षमता तेजी से बढ़ा रहा है और तुलना में भारत की तैयारी कितनी कम है। हो न हो कहीं चीन युध्द की तैयारी न कर रहा हो। ऐसे समय में हमारा पूरा ध्यान क्या स्वाइन फ्लू में ही अटका रहेगा, जिसके प्रिवेन्टिव इलाज के प्रति और आयुर्वेदाही इलाजों के प्रति कोई लोक जागरण नहीं है। राजकीय चर्चा चलती रहती है कि मुख्यमंत्री को खुद मास्क लगाकर मिसाल कायम करनी चाहिए या नहीं।
खैर, गणेशोत्सव में लाखों की भीड़ ने बता दिया कि स्वाइन फ्लू कोई महामारी वाला खतरा नहीं है। हां, इतना अवश्य है कि साधारण फ्लू में मरने का खतरा नहीं है। स्वाइन फ्लू में वक्त रहते इलाज न करने पर खतरा है। अब टॅमीफ्लू की कई लाख गोलियां भी आयात हो चुकी हैं, निजी अस्पतालों में भी बांटी गई हैं कि खतरा लगे, तो गटक जाओ। टेस्टिंग की हरेक किट का खर्च होता है करीब दस हजार- वह भी एक टेस्ट का। ऐसे हजारों किट भी आयात हो चुके हैं। हमारी आईसीएमआर या हाफकिन जैसी संस्थाएं अपने शोधकार्य के बलबूते पर ऐसा किट बना सकने की क्षमता क्यों नहीं रखतीं -यह चर्चा अगले दस वर्षो में कभी किसी सेमिनार में हो जाएगी। ऐसे मौके पर हम तुलसी काढा, प्राणायाम, नेट्रम सल्फ आदि की बात या प्रयोग (एक्सपेरीमेंट और ऍप्लीकेशन दोनों अर्थों में) क्यों नहीं करते, यह सवाल कभी नहीं उठेगा क्योंकि यह इंडिया व्हर्सेस भारत का झगड़ा है।
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